Advaitvad Ka Sankshipt Itihas (अद्वैतवाद का संक्षिप इतिहास)
₹108.00
Author | Dr. Gopinath Kaviraj |
Publisher | Bharatiya Book Corporation |
Language | Hindi |
Edition | 1st-Edistion,2021 |
ISBN | 978-81-85122-80-9 |
Pages | 108 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 0.5 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | TBVP0062 |
Other | Dispatched In 1 - 3 Days |
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अद्वैतवाद का संक्षिप इतिहास (Advaitvad Ka Sankshipt Itihas) बादरायण का ब्रह्मसूत्र यद्यपि ब्रह्मसूत्रकार बादरायण के विषय में विशेष कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है, तथापि आलोचना-प्रसङ्ग से कुछ कहना पड़ता है। यह सर्वत्र प्रसिद्ध है कि बादरायण व्यास का नामान्तर है; परन्तु आजकल पाश्चात्त्य तथा भारतीय अनेक अन्वेषणकर्ता यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं। किसी-किसी का यह मत है कि बादरायण को व्यास मान लेने पर भी वे कृष्णद्वैपायन व्यास हैं, इसमें कोई प्रमाण नहीं है। परन्तु इस विषय में यह विचारणीय है कि पाणिनि के सूत्र में जिन भिक्षुसूत्रकार पाराशर्य का उल्लेख है, वे कौन पाराशर्य हैं। भिक्षुशब्द संन्यासी का नामान्तर है। अतएव यह अनुमान किया जा सकता है कि भिक्षुसूत्र संन्यासियों के पठन योग्य उपनिषदों के आधार पर लिखा गया कोई ग्रन्थ होगा। यदि यह कल्पना सत्य हो, तो वह भिक्षुसूत्र वेदान्तसूत्र या ब्रह्मसूत्र से भिन्न नहीं होगा। पाराशर्य पराशरपुत्र का नामान्तर है। अतएव पराशरपुत्र व्यास द्वारा निर्मित एक भिक्षुसूत्र अतिप्राचीन समय में भी प्रसिद्ध था। भगवान् पाणिनि के सूत्र में इस ग्रन्थ का उल्लेख होने से प्रतीत होता है कि पाणिनि को उक्त ग्रन्थ का परिचय था। वर्तमान समय में जो ब्रह्मसूत्र प्रचलित है, यह भी बादरायण व्यास के नाम से ही प्रसिद्ध है।
यह ग्रन्थ प्राचीन ग्रन्थ से अभिन्न है अथवा उस सम्प्रदाय का कोई अर्वाचीन ग्रन्थ है, इसका निर्णय करना अत्यन्त कठिन है। इस विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि जब तक कोई प्रबल विरुद्ध प्रमाण आविष्कृत न हो, तब तक कल्पनागौरव करके एक से अधिक वेदान्तसूत्रकार व्यास की सत्ता का अंगीकार करने की आवश्यकता नहीं है। अध्यापक जैकोबी तथा अन्यान्य पाश्चात्त्य विद्वानों का विश्वास है कि प्रचलित वेदान्तसूत्र अन्यान्य दर्शनसूत्रों के रचनाकाल से परवर्ती काल में निर्मित हुआ था। इसका कारण यही है कि वेदान्तदर्शन में खण्डन करने के लिए जितने दार्शनिक पूर्वपक्ष उपस्थित हुए हैं, वे सब अपेक्षाकृत अर्वाचीन है। सांख्य, सांख्यानुगत योग, न्याय-वैशेषिक, बौद्ध, आर्हत, पाश्चरात्र और पाशुपत – ये सब मत प्रवाहरूप से प्राचीन होने पर भी दार्शनिक साहित्य के इतिहास में अत्यन्त प्राचीन नहीं हैं; क्योंकि अतिप्राचीन सांख्य मत का वेदान्तसूत्र में निराकरण किया गया है, इस विषय में कोई प्रमाण नहीं है। ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका में सांख्यदर्शन का जैसा स्वरूप दिखलाया गया है, उसी का खण्डन वेदान्तसूत्र में है। आसुरि, पञ्चशिख, जैगीषव्य, वार्षगण्य, जनक और पराशर इन सब प्राचीन आचार्यों ने सांख्यज्ञान में निष्ठा प्राप्त करके जगत् में उसका प्रचार किया था। वोढु, सनन्दन आदि अचार्यों के विषय में भी यही प्रचलित है। प्राचीन षष्टितन्त्र ग्रन्थ का प्रतिपाद्य ज्ञान ईश्वरकृष्णकृत कारिकोपदिष्ट ज्ञान से सर्वथा अभिन्न नहीं है। महाभारत के शान्तिपर्व में तथा चरक, सुश्रुत आदि ग्रन्थों में भी किसी-किसी अंश में विभिन्न प्रकार से सांख्य-सिद्धान्त के विषय में वर्णन मिलता है।
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