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Anant Ki Aur (अनन्त की ओर)

297.00

Author Dr. Gopinath Kaviraj
Publisher Vishvidyalaya Prakashan
Language Hindi
Edition 2020
ISBN 978-93-5146-072-5
Pages 404
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code VVP0129
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Description

अनन्त की ओर (Anant Ki Aur) स्वनामधन्य महामहोपाध्याय डॉ० पं० गोपीनाथ कविराज के स्वानुभूत अध्यात्म पथ का जो वर्णन उनकी लेखनी द्वारा यत्र-तत्र व्यक्त किया गया था, उसी का संग्रहात्मक प्रयास हिन्दीभाषा के जिज्ञासुओं को सुविधा के लिए प्रस्तुत किया गया है। मुझे बीस वर्षों तक इन महापुरुष के दर्शन का सौभाग्य इनकी कृपा तथा प्राक्तन कमों के फलस्वरूप मिलता रहता था। इनके ही सानिध्य में आते-जाते रहने के कारण महान् साधक चन्द्रशेखर स्वामी हिरेमठ, डॉ० हरिश्चन्द्र शुक्ल, महान् तांत्रिक डॉ० ब्रजगोपाल भादुड़ी, शिवकल्प योगी, आचार्य रामेश्वर झा, गोपाल शास्त्री ‘दर्शनकेशरी’, दादा सीतारामजी, ठाकुर जयदेव सिंह आदि महान् विद्वानों से भी वहीं सम्पर्क हो सका था। यह इन महान् मनीषी को ही कृपा थी कि वहाँ कितने अनजाने विद्वानों से परिचय हो सका। न जाने कितने ग्रन्थों का आश्रय मिला, जो निकट बन्धु थे, सम्बन्धी थे, तथापि परमार्थपधिक नहीं थे, उनसे मैं दूर होता गया तथा जो पराये थे तथापि इस अगम पथ के पथिक थे, वे हो मेरे चिरबन्धु हो गये। यहीं सत्संग का चमत्कार है।

यह सत्संग मैंने जिस रूप में पाया था, भले हो उस रूप में अब उपलब्ध नहीं है, तथापि उन महापुरुष को साहित्यरूपी जो कृतित्व उपलब्ध हो रहा है, वह मूर्तरूप धारण करके अर्थात् वाङ्मयरूप में सतत विद्यमान है। इसका पठन-चिन्तन तथा अनुशीलन भी उनका ही सत्संग है। इस वाड्मयरूप के विद्यमान रहने के कारण उन महामनीषी का अभाव भी उतना नहीं खटकता। इस रूप में उन्होंने यथार्थ जिज्ञासुओं के लिए मानो एक सम्बल तथा पथप्रदीप तो छोड़ दिया है। यही उनकी यशःकाया है, जो काल के कराल झंझावात में भी यथावत् विद्यमान है।

यहाँ महापुरुष के वाक् तथा अर्थ की अलौकिकता का भी सन्धान प्राप्त होता है। भवभूति कहते हैं जो लौकिक साधु हैं वे वाक् के अर्थ का अनुसरण करते हैं, उसे खोजते दौड़ते हैं, परन्तु जो ऋषि है अर्थ तो उनके पीछे दौड़ता रहता है। उनकी वाणी का अर्थ ढूँढ़ना नहीं पड़ता, उस वाणी के पठन-मात्र से जो जैसा अधिकारी है, उसके अधिकार के अनुसार, उसके स्तर के अनुसार, उस वाणी का अर्थ प्रतिभात होने लगता है अर्थात् एक ही वाणी का अर्थ पाठक के अपने स्तर के क्रमानुसार तत्तद् प्रकार का प्रतिभात होने लगता है। ‘जाकी रही भावना जैसी’ उसे वैसे ही अर्थ का प्रतिफलन होता है। तदनन्तर जैसे-जैसे भावना की उत्नीत अवस्था आती-जाती है, उसी तारतम्य से उस व्यक्ति की उन्नति के अनुसार नवीन नवीन अर्थ (उसीवाक्य का) प्रतिभात होने लगता है। यही महापुरुष की वाणी की अलौकिकता है ‘प्रतिक्षणंयन्त्रवतामुपैति’।

महापुरुष की वाणी आपाततः क्लिष्ट तथा दुरूह प्रतीयमान होने पर भी यथार्थतः वैसी अगम नहीं होती। यह क्लिष्टता हमें अपनी हृदयहीनता तथा संस्कारों से आबद्धता के कारण अनुभूत होती है। हृदय में हृदयत्व कहाँ है ? उसमें तो स्वार्थ, कुटिलता तथा मात्र अपने प्रति ममत्व भरा है। उसमें उन्मुक्तता कहाँ है? परदुःखकातरता कहाँ है ? सर्वजन हित-कामना कहाँ है ? ऐसे कुटिल तथा प्रस्तरवत् हृदय के रहते महापुरुष की वाणी दुरूह तो प्रतीत होगी ही। महापुरुष जो भी लिख गये हैं, वह उन्होंने लोकहितार्थ लिखा है। अपने उद्देश्य से एक शब्द भी नहीं लिखा है। उसका यथार्थ तात्पर्य समझने के लिए हमें सहृदय बनना होगा। शापित (हृदयरूपी) प्रस्तर मूर्ति अहल्या को प्रभु प्रेमरूपी चरणाग्र के स्पर्श से पुनः चेतनवत् बनाना होगा। तभी शास्त्रों का तथा महापुरुषों की वाणी का यथार्थ तात्पर्य ज्ञात हो सकेगा। कविराजजी तथा अन्य महात्माओं के साहित्य के प्रकाशन में विश्वविद्यालय प्रकाशन का अपूर्व योगदान रहा है। इसके लिए इस प्रकाशन के अधिष्ठातागण धन्यवाद के पात्र हैं।

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