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Atma Nirjhar (आत्मनिर्झर)

140.00

Author Dr. Gopinath Kaviraj
Publisher Bharatiya Vidya Prakashan
Language Hindi
Edition 2021
ISBN 978-81-217-0202-7
Pages 200
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code TBVP0426
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Description

आत्मनिर्झर (Atma Nirjhar) आत्मनिर्झर आत्मप्रकाशन कर रहा है। यह इसका कोई अभिनव, नवीन आत्मप्रकाशन नहीं है। यह तो सदा-सर्वदा, सतत् प्रकाशित है, तथापि चिरपुरातन होने पर भी “प्रतिक्षणंयन्त्रवतामुपैति” रूप में इसकी चिरन्तन पुरातनता के क्रोड़ से नित्य नवीनता के स्फुलिंगों का अविराम निर्गमन होता ही रहता है। यही इसकी रमणीयता है। यह एकदेशीय, एककालीय अथवा एकजातीय सीमा रेखा से आबद्ध नहीं है। ऋत का स्वरूप सदा, सर्वदा, सर्वत्र एकरस होता है। अतः यह सार्वभौम तथा सार्वजनीन है। कर्म, ज्ञान तथा विज्ञान की इस त्रिपथगा के परम पावन जल में सभी समान रूप से संतरण के अधिकारी हैं। इसका स्रोत महापुरुषों के अन्तरतम से वाणीरूप में उन्मुक्त होता रहता है। महापुरुषों की वाणी ही सार्वभौम वाणी है। इसमें साघनगत अथवा भावगत भेद का आभास प्राप्त होने पर भी, इस भेदावभास की पृष्ठभूमि में एक महान् आदर्श की सत्ता विद्यमान रहती है। यह महान् आदर्श है जगत् के अनन्त वैचित्र्य के केन्द्र में स्थित “एक अभिन्नत तत्त्व” का सन्धान प्राप्त करना। इस सन्धान से अनन्त वैचित्र्य की भी सार्थकता सिद्ध हो जाती है। इस सन्धान की प्राप्ति के साथ-साथ कर्म, ज्ञान, भक्ति, सक्रिय, निष्क्रिय, साकार, निराकार आदि सब कुछ एक अखण्ड रूप में प्रकाशित होने लगता है। यह है, समन्वयी दृष्टि का विकास।

इसे विज्ञान दृष्टि भी कहते हैं। रहस्य का भेंदन करने में यही दृष्टि सक्षम है। विज्ञानमयी दृष्टिभंगी है “आत्मनिर्झर” का यथार्थ स्वरूप है। ज्ञान की दृष्टि से जगत् मिथ्या है, भेद भी मिथ्या है, परन्तु विज्ञान की दृष्टिभंगी में एक सत्य ही महासत्य है। सब कुछ उस “एक” का स्वातंत्र्यरूप लीलामय आत्मप्रकाश होने के कारण परमसत्य है। अतः जो ब्रह्मावस्था में, लीलातीतावस्था में, स्थिर एवं अन्तर्लीन है, वहीं लीलामयता के कारण अनन्त वेश धारण करते हुये चिरकल्लोलमय है। इस तत्त्व का साक्षात्कार ग्रन्थिमुक्त हृदय में ही हो सकता है। यही महापुरुषावस्था भी है। महापुरुषावस्था में स्वरूपज्ञान उन्मुक्त रहता है। स्वरूपज्ञान क्रमरहित तथा नानात्व विहीन स्थिति है। क्रम को कालगत धर्म कहते हैं। नानात्व में देशगतधर्म की प्रधानता रहती है। अतः देशकाल से अतीत महापुरुषों में त्रिकाल जनित आच्छन्नता नहीं रहती। उनकी दृष्टि, अबाधित दृष्टि है। यहदृष्टि स्वयंप्रकाशत्व से ओतप्रोत है। इसके सम्मुख समस्त वैचित्र्य का रहस्य उद्‌द्घाटित सा रहता है। यह अवस्था अपरिच्छिन्न तथा सर्वविषयक ज्ञानरूपात्मक है। यही है क्रम तथा नानात्व रहित प्रतिभा।

यह अन्तर्मुखीन, भेदरहित तथा चित् स्वरूप है। इसे प्रमाण की अपेक्षा नहीं रहती। प्रमाण तो बहिर्मुखी विज्ञान है। प्रतिभा को प्रमाण की क्या आवश्यकता? वह प्रमाणबन्धन से सदा उन्मुक्त है। अतएव महापुरुष का वचन प्रतिभा रूप होने के कारण शास्त्र तथा गुरुरूप प्रमाणश्रित नहीं है। वह अपने आप में स्वतः प्रमाण, शास्त्र तथा गुरुरूप है। इसी कारण त्रिपुरारहस्य में प्रतिभा को श्री मां का परमरूप कहा गया है। श्री मां का परमरूप सतत् स्वतंत्र तथा अन्य की अपेक्षा से रहित है। अतः प्रतिभा सम्पन्न महापुरुष की वाणी को ही आप्त तथा प्रमाणरूप माना जाता है।”आत्मनिर्झर” बौद्धिक विलास नहीं है। अन्तस् से उल्लसित वर्णना क्रम है, जिसकी प्रत्येक पक्ति अनुभूति पूर्ण ईश्वरीय प्रेरणा से ओतप्रोत है। जैसे विवेक बिन्दु तत्त्वेत्ता का विशेष वरदान है, विश्लेषण वैज्ञानिक का स्वभाव है, वैसे ही दर्शन भी दार्शनिक की विशेष शक्ति है। दर्शन का अर्थ है, अपनी सत्ता की समुज्वल निरपेक्ष स्थिति में प्रादुर्भूत प्रातिभ ज्ञान। यह आत्मप्रकाशन की शक्ति प्रदान करता है। इस शक्ति का धारक ही महापुरुष पदवाच्य है। वही यथार्थ दार्शनिक भी है। यथार्थ दार्शनिक जो कुछ भी सृजन करता है, वह वास्तव में आत्मप्रकाश ही है, कारण आत्मातिरिक्त तो कुछ है ही नहीं! दार्शनिक की चेतना एक प्रकार की केन्द्राभिमुखी गति है। जितने ही समुन्नत दृष्टिकोण से इसकी अभिज्ञता प्राप्त की जाती है, उतनी ही यथार्थता से यह मण्डित होती जाती है। यह समुन्नत दृष्टिकोण जब वर्ण समूह से मण्डित होकर भाषाक्रम में प्रकट होता है, तब अव्यक्त भी जीवन्त के समान व्यक्त होकर जनमानस के सम्मुख अवतीर्ण हो उठता है।

“आत्मनिर्झर” महापुरुष, प्रतिभायुक्त दार्शनिक महामहोपाध्याय डॉ. पं गोपीनाथ कविराज महोदय के उपदेशों पर आधारित है। समय-समय पर डाबरो में संकलित उनके उपदेशों का उपबृंहण ही “आत्मनिर्झर” में प्रतिपादित तत्त्व का यथार्थ रूप है। मेरी डायरी में सूत्ररूप से अंकित उपदेश बीज आज अंकुरित-पल्लवित होकर ” आत्मनिर्भर” रूप वटवृक्ष का आकार ग्रहण कर रहा है। जो जिज्ञासु हैं, जिन्हें लक्ष्यरूप महापथ का किचित् भी सन्धान प्राप्त हो चुका है, उनकी जन्म जन्मान्तर की क्लान्ति का हरण इस वृक्ष की छाया में अवश्य होगा और वे इस तरुछाया का यथार्थ आनन्द प्राप्त कर सकेंगे।

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