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Ashtang Hridayam (अष्टाङ्गहृदयम)

336.00

Author Shri Harinarayan Sharma
Publisher Chaukhambha Viswabharati
Language Sanskrit
Edition 2016
ISBN 978-93-81301-41-8
Pages 520
Cover Paper Back
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CVB0001
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Description

अष्टाङ्गहृदयम (Ashtang Hridayam) सुखाभास समन्वित दुःखमय संसार में सब प्राणियों के मध्य ‘पुरुष’ हो श्रेड पाना गया है। प्राचीन सिद्ध ऋषि मुनियों ने शान्तिपूर्व जीवन व्यतीत करने के लिए चार पुरुषार्थों का निर्देश किया है। वे हैं धर्म, २ अर्थ, ३ काम ४ और मोक्ष । शास्त्रविहित प्रकारानुसार इन पुरुषार्थों के अनुष्वान द्वारा मनुष्यों को अवश्य हो शान्तिमय जीवन यापन करने में सहाय्य प्राप्त होता है, किन्तु इन चारों पुरुषार्थों का उत्तम मूल शारीरिक एवम् मानसिक आरोग्य ही है। शरीर-मन में अल्पमात्र भी विकृति होने से उपर्युक्त चारा पुरुषार्थों में एक का भी ब्यबहार पंगुमय हो जाता है। इस बात का सह-सही अनुभव चरकचार्य ने किया था और इसकी उद् बोषणा भी कर दी है-

धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् ।

रोगास्तस्यापहर्तारः श्रेयसो जीवितस्य च ॥

अतः शारीरिक तथा मानसिक आरोग्य सुरक्षित रखने के लिए त्रिकालदर्शी ऋषियों ने सारे जगत् के मनुष्यों के कल्याणार्थ उपायभूत चिकित्सा (जोवन) विज्ञान ‘आयुर्वेद’ का भी प्रसार किया ।

संप्रति हमारे देश में दो प्रकार का आयुर्वेदिक संप्रदाय प्रचलित है। १ आत्रेय संप्रदाय, २ धन्वन्तरि संप्रदाय । उनमें आत्रेय संप्रदाय का काय-चिकित्सा प्रधान, एवं धन्वन्तरि संप्रदाय वालों का शल्य (सर्जरी) तन्त्र प्रधान ग्रन्थ का इस देश में प्रचलन है, किन्तु एक साथ दोनों माँ को प्रदर्शित करने- वाला कोई एक ग्रन्थ चरक सुश्रुत के बाद नहीं था। इसी अभाव को दूर करने के हेतु से सिहगुप्त के आत्मज परमकुशल विद्वद् वरिष्ठ आचार्य वाग्भट ने दोनों सम्प्रदायों का इधर उधर फैले हुए विषयों का अनेक ग्रन्थों से संग्रह द्वारा, जो कि नतो अति संक्षेप और न अति विस्तार है, सारतर भाग लेकर आयुर्वेद के बाठों अङ्गों का प्रतिपादन करने वाले ‘अष्टाङ्ग हृदय’ नामक ग्रन्थ का निर्माण किया। ग्रंथ के अन्त ४०वें अध्याय में उन्होंने स्वयं लिखा है-

यदि चरकमधीते तद्धुवं सुश्रुतादि-प्रथिगदितगदानां नाममात्रेऽपि

अथ चरकविहीनः प्रक्रियायामखिन्नः किमिव खलु करोति व्याधितानां बराकः ।।

इसी कारण इस ग्रन्थ में शरीर एवं भेषज के तत्त्वादि तथा शल्य-शालाक्य आदि के विवरण, आयुर्वेद के सभी प्रकार के ज्ञातब्य चिकित्सा विज्ञान के सभी अङ्गों का उल्लेख करने में बहुत अधिक निपुणता पाई जाती है।

इसकी भाषा प्राञ्जल-प्रौढ़ विशुद्ध एवं रचनारीति मुमार्जित है। आयुर्वेद के तन्त्रों में संप्रति ऐसा ग्रन्थ ज्ञाजतक दुर्लभ ही है। केवल इसी एक ग्रन्थ से दोनों ग्रंथों का मर्म सुगमता से विज्ञात हो सकता है। आयुर्वेद तन्त्र में “अष्टाङ्ग हृदय” सदृश अन्य ग्रन्थ सर्वथा दुर्लभ हो है।

किसी का कथन है-“निदाने माधवः श्रेष्ठः, सूत्रस्थाने तु वाग्भटः” यह बच्चन विद्वानों को सत्य ही प्रतीत होता है। “अष्टाङ्ग हृदय” का सूत्रस्थान जैसा होना चाहिए, प्रतिपाद्य आयुर्वेदिक अनेक विषयों से परिपूर्ण, क्रमबद्ध किसी भी तन्त्र का नहीं है। अतः आयुर्वेदिक विषयज्ञान के लिए इच्छुक विद्वान् एवं छात्रों को यह ग्रन्थ अवश्य दृष्टब्य है।

आयुर्वेद वेदका उपाङ्ग होने से वेद निःसूत हो है। प्राचीन कालिदास भारवि- भवभूति श्रीहर्ष आदि कविवरों के सभी काव्यनाटक आदि ग्रंथों में प्रसंगवश आयुर्वेद के सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है। उन ग्रन्थों के टीकाकारों ने “यदाह-वाग्भटः” लिखकर उन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। श्रीहर्ष कवि ने तो स्वविरचित नैषध चरित में चरक मुश्रुत का स्पष्ट उल्लेख किया है।

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