Sarva Vijayi Tantram (सर्वविजयितन्त्रम्)
₹70.00
Author | Dr. Subhash Kumar Singh |
Publisher | Chaukhambha Krishnadas Academy |
Language | Hindi & Sanskrit |
Edition | 2011 |
ISBN | 978-81-21803045 |
Pages | 72 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0592 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
10 in stock (can be backordered)
CompareDescription
सर्वविजयितन्त्रम् (Sarva Vijayi Tantram) समस्यायें जीवन का एक अंग हैं, जब से इस संसार में जीव की उत्पत्ति हुई तब से ही समस्यायें पैदा हुई हैं; क्योंकि जीवनयापन में जीव को कठिनाईयों का होना स्वाभाविक है तथा सुचारु ढंग से जीवन जीने के लिये आने वाली कठिनाईयों का उपाय भी स्वाभाविक है। यह प्रक्रिया संसार में एक सूक्ष्म कीट से लेकर मनुष्य तक सभी के समक्ष है तथा सभी को अपने-अपने तरीके से उसका समाधान करना है। यह प्रक्रिया आदिकाल से चली आ रही है। आदि मानव से लेकर आज तक मनुष्य जीवन की समस्याओं से जूझता हुआ चला आ रहा है और समय-समय पैदा होने वाली समस्याओं का अपनी बुद्धि से समाधान करता चला आया है। इस मानवजाति ने चिरकाल से समस्याओं का समाधान किया है। जीवन की इस लम्बी यात्रा में मनुष्य ने अपने जिन-जिन विचारों को कार्य रूप दिया है, वे ही मन्त्र, तन्त्र और यन्त्र के रूप में कहे गये हैं। वेदों में इन मन्त्र, तन्त्र और यन्त्रों का विवरण मिलता है। यह अलग बात है कि जितना मन्त्रों, तन्त्रों का विवरण मिलता है, उतना यन्त्रों का नहीं मिलता।
मन्त्र, तन्त्र और यन्त्र ये शब्द बहुप्रचलित हैं। सभी जानते हैं; परन्तु आज के परिप्रेक्ष्य में मन्त्र एक विचार (Theory) को कहा जा सकता है; क्योंकि ‘मन्त्र’ (विचार करना) अर्थ वाली धातु में ‘अच्’ प्रत्यय से बने ‘मन्त्र’ शब्द का अर्थ है-विचार (Theory) तथा तन्त्र शब्द ‘तन्त्र’ नियन्त्रण करना, प्रशासन करना, पालन करना अर्थ वाली धातु में ‘अच्’ प्रत्यय से बने ‘तन्त्र’ शब्द का अर्थ है मन्त्र (विचार) को व्यवहार में लाकर उसका प्रयोग करना। जैसे कि मन्त्र है कि राजा को प्रजा की रक्षा के लिये चोर को दण्डित करना चाहिये। अतः जब राजा ऐसा करेगा वही ‘तन्त्र’ है। उदाहरण के लिये ‘मन्त्र’ है कि प्रजा को सही मार्ग पर चलने के लिये राज्य की व्यवस्था होनी चाहिये। अतः यह तो केवल विचार है; परन्तु जब उसको व्यवहार रूप दिया अर्थात् राज्य की व्यवस्था की गयी यही ‘तन्त्र’ है। कथन का आशय है मन्त्र का व्यवहारिक रूप तन्त्र है। अब यन्त्र किसे कहते हैं? यह भी विचारणीय तथ्य है। मेरे विचार से यन्त्र भी मन्त्र का व्यावहारिक रूप है। अर्थात् मन्त्र आदि यदि (Theory) विचार है, तो एक यन्त्र (Prectical) प्रयोगात्मक रूप है। इस प्रकार तन्त्र और यन्त्र दोनों ही मन्त्र के व्यावहारिक रूप हैं। अन्तर केवल इतना है कि तन्त्र मन्त्र का भावात्मक प्रयोग है और यन्त्र उसका क्रियात्मक प्रयोग है। जैसे यह कहा गया कि राजा स्वच्छन्द न हो जाये, इसलिये उसको परामर्श देने के लिये मन्त्रिपरिषद् होनी चाहिये। यह मन्त्र है तथा मन्त्रिपरिषद् का गठन एक तन्त्र हुआ तथा यन्त्र इसके विपरीत एक मशीन का रूप है जैसे कि हमारे प्राचीन ग्रन्थों में शब्द को नित्य कहा गया था। अतः वे जानते थे कि शब्द कभी नष्ट नहीं होता। अतः मन्त्र तो था; परन्तु उस समय यन्त्र नहीं था। अब यन्त्र भी बन गया रेडियो, टेलिविजन जिसने यह सिद्ध कर दिया कि शब्द कभी भी मरता नहीं है। अतः यन्त्र मन्त्र का क्रियात्मक व्यवहार रूप है।
इस प्रकार समझा जाये जैसे कि आज विज्ञान के युग में कहा गया कि दो हाइड्रोजन के अणु और एक आक्सीजन का अणु मिलाया जाये तो पानी बन जायेगा। इसे तन्त्र द्वारा देख भी लिया तथा अब ऐसा यन्त्र बनाया जाये जो हवा में पाये जाने वाले आक्सीजन और हाइड्रोन को मिलाकर पानी बना दे। ऐसा यन्त्र बना कर कृत्रिम वर्षा की जा सकती है।
इस प्रकार मन्त्र एक विचार है, उसका भावनात्मक व्यवहार तन्त्र है और क्रियात्मक व्यवहार यन्त्र है। अथवा यों कहिये कि मन्त्र एक विचार है, तन्त्र एक व्यवस्था है और यन्त्र एक मशीन है। मन्त्र जब अपने अन्तिम धरातल पर पहुँचता है, तब वह यन्त्र का रूप ले लेता है। आज यन्त्र का युग है। मन्त्र अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका है। सभी विचार अपना एक व्यवहार रूप ले चुके हैं। सभी लोग यन्त्र पर आधारित हैं, इसीलिये इसे कलियुग (कलयुग) कहा जाता है; परन्तु सब कुछ मन्त्र और तन्त्र पर ही निर्भर है। इस प्रकार मंत्र, तंत्र और यन्त्र मानव की समस्याओं के समाधान ही हैं। तथा ये सभी मानव जीवन की समस्याओं से सम्बन्धित हैं।
Reviews
There are no reviews yet.