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Atharva Vediyam Bhumi Suktam (अथर्ववेदीयं भूमिसूक्तम)

106.00

Author Prof. Uma Sankar Sharma
Publisher Chaukhambha Viswabharati
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2022
ISBN 978-93-91730-00-0
Pages 68
Cover Paper Back
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CVB0011
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Description

अथर्ववेदीयं भूमिसूक्तम (Atharva Vediyam Bhumi Suktam) अनुगमन करते हुए भी अथर्ववेद-संहिता में संकलित मन्त्रों का परिवेश तथाकथित ‘उत्तरवैदिक काल’ का है जब वैदिक आर्यों को बृहत्तर आवास-क्षेत्रों में पहुँचने का और अनेक विलक्षण जन-समूह से मिलने जुलने का अवसर मिला। भौगोलिक और सामाजिक परिवेश की व्यापकता और विलक्षणता से साक्षात्कार होने के कारण अथर्ववेद के मन्त्रों की विषय-वस्तु में पर्याप्त परिवर्तन का अवसर था। ऋग्वेद तथा यजुर्वेद के मन्त्रों के शब्द-क्रम में परिवर्तन और विपुल संख्या में नये मन्त्रों का समावेश अथर्ववेद के ऋषियों ने किया। विषय-वस्तु में लौकिक सामग्री बहुत बढ़ गई।

यज्ञ के सम्पादक ऋत्विजों में ‘ब्रह्मा’ नामक ऋत्विज भी होता था। त्रिवेदमत के अनुसार ब्रह्मा सर्ववेदविद् होता था अर्थात् तीनों वेदों का ज्ञाता। उसका वरण सर्वप्रथम कर लिया जाता था-यज्ञ के कृताकृत कर्मों का अवेक्षण करना उसका विहित कर्म था। जब अन्य ऋत्विज (होता, उद्‌गाता और अध्वर्यु) कहीं स्खलन (त्रुटि) करें तो वह समाधान करता था। अथर्ववेद को मान्यता मिलने पर, चतुर्वेद-मत में, ब्रह्मा को अथर्ववेद का अधिकार मिला, जैसे अन्य ऋत्विज एक-एक वेद के अधिकारी थे। तदनुसार अथर्ववेद की संज्ञा ‘ब्रह्मवेद’ (ब्रह्मा नामक ऋत्विज का वेद) भी हो गई। ब्रह्मा का काम वही रहा- कृताकृतावेक्षण। किन्तु अथर्ववेद के रूप में ब्रह्मा को एक अद्भुत सहायक संहिता प्राप्त हो गई जिसमें याज्ञिक त्रुटियों के समाधान के रूप में कई नई वस्तुओं की प्रार्थना मिल गई-ओषधियों की, भूमि की, शत्रुनाशक देवी-देवों की। लोक-जीवन की मान्यताओं, विश्वासों, जन-समुदायों, धार्मिक अभिरुचियों, दार्शनिक चिन्तनों तथा अन्य ऐसी व्यवस्थाओं को पर्याप्त विस्तार अथर्ववेद में मिला। इस प्रकार लौकिक साहित्य में जो स्थान ‘महाभारत’ का है वही वैदिक साहित्य में अथर्ववेद का है-वैदिक जीवन का ऐसा व्यापक निरूपण अन्य वैदिक ग्रन्थों में नहीं। इसमें जितना यज्ञ और धर्म का विवेचन है उतना ही धर्मेतर (लौकिक) विषयों का। यह अथर्ववेद को वैदिक वाङ्मय में अनन्य स्थान देता है।

अथर्व या अथर्वन् शब्द का निर्वचन गोपथ ब्राह्मण (१.४) एवं निरुक्त (११.१८) में मिलता है। निरुक्त में थर्व धातु को गत्यर्थक बताकर गति के निषेध को ‘अथर्व’ कहा गया है। (अथर्वाणो ऽ अथर्वणवन्तः, थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः)। आशय है कि चित्तवृत्तियों के निरोध-रूप योग का यहाँ उपदेश है। दूसरी ओर गोपथ ब्राह्मण अच अर्वाक से ‘अथर्व’ शब्द की व्याख्या करता है जिसका आशय है कि यह वेद अपनी आत्मा को अपने भीतर या निकट देखने की शिक्षा देता है। ये दोनों ही निर्वचन काल्पनिक तथा पूर्वाग्रह मात्र हैं क्योंकि इस वेद में आध्यात्मिक दार्शनिक मन्त्र अवश्य है किन्तु विपुल भाग लौकिक एवं दर्शनेतर विषयों से संबद्ध है।

वस्तुतः अग्नि को प्रदीप्त करने वाले पुरोहितों को ‘अथर्वन’ कहते थे जिसके समकक्ष अवेस्ता में ‘अग्रवन्’ शब्द है। ‘अथर्’ या ‘अतर्’ प्राचीन फारसी (ईरानी) भाषा में अग्नि का पर्याय था जिससे आधुनिक फारसी में आतिश् शब्द आया। इसलिए वैदिक काल के सोम-पुरोहितों से भिन्न अथर्वन् अग्नि-पुरोहित थे। अग्नि को आधार बनाकर अथर्वा विचित्र, आश्चर्यजनक कार्य करते थे। ऋग्वेद में अग्नि को स्वर्ग से लाने वाले ऋषि को ‘अङ्गिरस्’ कहा गया है। इन्हीं के वंश में अथर्वा ऋषि उत्पन्न हुए थे जो केवल अग्नि को जीविका-साधन बनाये हुए थे। अथर्ववेद का प्राचीन नाम ‘अथर्वाङ्गिरस’ भी है (अर्थात् अङ्गिरा के गोत्र में उत्पन्न अचर्वा ऋषि-अथर्वा आङ्गिरसः-उससे संबद्ध वेद)। यूनानी भाषा में अङ्गिरस के समानान्तर अंगेलोस् (angelos) शब्द है, जिसका अर्थ दूत है (जिससे अंग्रेजी में ‘angel देवदूत’ बना है)। अङ्गिरा यदि अग्नि के पर्याय होते हैं तो वैदिक मंत्रों में उन्हें देवों का दूत कहा भी गया है। किसी भी स्थिति में अथर्ववेद अग्नि- प्रधान वेद है।

कुछ आधुनिक विद्वानों का मत है कि अथर्वन् और अङ्गिरस दो भिन्न प्रकार के पुरोहितों से संबद्ध मन्त्र इस वेद में संकलित हैं। अथर्वन् के मन्त्र तो शान्ति-पुष्टि आदि सौम्य कर्मों के प्रतिपादक हैं तो अङ्गिरस के मन्त्र अभिचार-कर्म (मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि) से संबद्ध हैं। इन दोनों ही ऋषियों और उनके वंशजों से संबद्ध मन्त्र अथर्ववेद में आये हैं।

अथर्ववेद में विषय-वस्तु के आधार पर इसके अन्य नाम भी प्रचलित हैं-क्षत्रवेद (राजकर्म के अन्तर्गत राजाओं और क्षत्रियों के कर्त्तव्यों का निर्देश होने से), भैषज्यवेद (आयुर्वेद, चिकित्सा, ओषधि आदि का पर्याप्त वर्णन होने से), महीवेद (पृथ्वी की महता, महती ब्रह्मविद्या का निरूपण होने से), छन्दोवेद (वैदिक छन्दों के मिश्रण एवं विविधता रहने से), ब्रह्मवेद (यज्ञ में ब्रह्मा नामक ऋत्विज् के कमाँ का एवं ब्रह्म के विभिन्न रूपों का विवेचन रहने से) तथा आङ्गिरस वेद (अंगिरा ऋषि के वंशजों के मन्त्रों के कारण)।

प्रत्येक वैदिक संहिता (मन्व-संकलन) अनेक शाखाओं में विकसित हुई थी। उन शाखाओं का प्रचलन विभित्र ऋषि-परिवारों में था। शाखाओं में सूक्तों, मन्यों के कम तथा यत्र-तत्र पद-विन्यास को लेकर अनार होता था। उदाहरण के लिए प्रस्तुत भूमि-सूक्त शौनक शाखा में १२ वें काण्ड में है जब कि पैप्पलाद शाखा में १७ वे काण्ड में है। शौनक शाखा में ६३ मंत्र हैं किन्तु पैप्पलाद शाखा में अन्तिम दो मंत्र नहीं हैं। शौनक शाखा के अथर्ववेद का प्रथम मंत्र है-

ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः। वाचस्पतिर्बला तेषां तन्यो अध दधातु मे ।। (अनुष्टुप् छन्द) दूसरी ओर पैप्पलाद शाखा का प्रथम मंत्र है-

शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।

शं योरभि स्त्रवन्तु नः।। (गायत्री छन्द)

यह मंत्र शौनक शाखा में प्रथम काण्ड के षष्ठ सूक्त में प्रथम मंत्र (१.६.१) के रूप में आया है। जिस ऋषि-परिवार में मंत्रों का जैसा संकलन हुआ उस परिवार में उसी की परम्परा चलती रही। इस प्रकार वेद-शाखाएँ परस्पर भिन्न थीं। वैदिक अध्ययन के हास से सभी शाखाएँ सुरक्षित नहीं रह सकी।

महाभाष्य के लेखक पतंजलि के समय (१५० ई.पू.) अथर्ववेद की नी शाखाएँ वर्तमान थीं। किन्तु कालक्रम से आज केवल दो शाखाएँ ही अपनी संहिताओं को सुरक्षित रख सकी हैं। वे हैं शौनक और पैप्पलाद। शौनक शाखा भारतीय परिप्रेक्ष्य में अधिक लोकप्रिय है। यद्यपि एक समय पैप्पलाद शाखा की ही यह स्थिति थी। पतञ्जलि ने अथर्ववेद के प्रथम मन्त्र के रूप में इसी शाखा के ‘शं नो देवी’ मन्त्र का उद्धरण दिया है। अथर्ववेद का एकमात्र उपलब्ध गोपथ ब्राह्मण तथा प्रश्नोपनिषद जैसी उपनिषद् भी पैप्पलाद शाखा से ही संबद्ध हैं। पैप्पलाद-संहिता कश्मीर में शारदा लिपि में मिली थी जिसका संस्करण अमेरिकी विद्वान् ब्लूमफील्ड ने १९०१ ई. में प्रकाशित किया था। उन्होंने इसका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित किया था। आरम्भ में इसे अथर्ववेद ‘कश्मीरी संस्करण’ कहा जाता था।

आज अथर्ववेद के शौनक-शाखीय संस्करण को ही पर्याप्त मान्यता है। इसके अनेक संस्करण भारत में प्रकाशित हैं। इसी का अंग्रेजी तथा अनेक भारतीय भाषाओं में रूपान्तर किया गया है। इसी पर सायणाचार्य का भाष्य भी है। वह भी कई संस्थानों से प्रकाशित है। इसमें अथर्ववेद के मन्त्रों का कर्मकाण्डीय विनियोग भी बताया गया है। आज अथर्ववेद पर जो भी विवेचना-समीक्षा की आती है उसका आधार शौनक संहिता ही है। यहाँ भी इसी संहिता पर दृष्टि है।

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