Ayurvediya Rasashastra (आयुर्वेदीय रसशास्त्र)
₹382.00
Author | Prof. Siddhi Nandan Mishra |
Publisher | Chaukhambha Orientalia |
Language | Hindi |
Edition | 2022 |
ISBN | 978-81-7637-114-8 |
Pages | 610 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CO0033 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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आयुर्वेदीय रसशास्त्र (Ayurvediya Rasashastra) आयुर्वेदाचार्य प्रोफेसर डॉ० सिद्धिनन्दन मिश्र द्वारा लिखित आयुर्वेदीय रसशास्त्र ग्रन्थ को आद्योपान्त बड़े ही ध्यान पूर्वक पढ़ने के पश्चात् मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि इस ग्रन्थ में विद्वान् लेखक ने वैदिक तथा पौराणिक काल से लेकर अद्यावधि पर्यन्त एतद्विषयक जो कुछ विकास एवं जानकारी प्राप्त हुई है उन सब का सारांश बड़ी सरलतापूर्वक वैज्ञानिक एवं साहित्यिक ढंग से “गागर में सागर” जैसा स्थापित कर सजाया है।
आयुर्वेदीय रसशास्त्र में प्रयुक्त होने वाले रस यानि पारद तथा महारस-उपरस-साधारणरस-रत्न-उपरत्न-धातु और श्वेतवर्गीय (जान्तव खनिज और वानस्पतिक) पदार्थों का आद्योपान्त विवेचन करते हुए उन सभी का स्वरूप-रासायनिक संगठन- शोधन-मारण-सत्त्वपातन तथा मानव शरीर पर प्रयोगों के विषय में विद्वान् लेखक ने जो कुछ लिख दिया है, वह एतद्विषयक उपलब्ध सभी (प्राचीन-अर्वाचीन) ग्रन्थों के वारीकी एवं गम्भीरतापूर्वक अध्ययन का ही द्योतक है।
नागार्जुन आदि प्राचीन रससिद्धों ने एवं मध्ययुगीन अनेक आचार्यों द्वारा आयुर्वेदीय रसशास्त्र के विषय में जितने भी ग्रन्थ लिखे गए हैं, उन सब का सारांश उन आचार्यों के नाम निर्देशपूर्वक एवं उनके विशिष्ट मत-मतान्तरों का उल्लेख करते हुए यथायोग्य स्थान पर श्री मिश्र ने उपस्थापित कर समादृत किया है। साथ ही लेखक ने सर प्रफुल्लचन्द्र राय, कर्नल रामनाथ चोपडा, डॉ० वामन गणेश देसाई, वैद्य यादव जी त्रिकम जी आचार्य, आचार्य जीवराम कालिदास व्यास, कविराज प्रताप सिंह, प्रोफेसर द०अ० कुलकर्णी और रससिद्ध आचार्य पं० हजारीलाल सुकुल वैद्य वासुदेव भाई द्विवेदी आदि विद्वान् आचायों ने आधुनिक एवं पाश्चात्य विज्ञान के दृष्टिकोण से रसशास्त्र के विभिन्न विषयों पर जो भी प्रकाश डाला है उन सब का समावेश इस ग्रन्थ में देखने को मिलता है। साथ ही भारत सरकार एवं अन्यान्य सरकारों के तत्त्वावधान में रसशास्त्र विषयक जो कुछ भी अनुसन्धान के परिणाम अद्यतन प्रसिद्ध हुए हैं उन सब का डॉ० मिश्र ने तत्तत्स्थानों पर उल्लेख किया है। डॉ० मिश्र ने संदिग्ध एवं विवादास्पद विषयों पर अपना मत बहुत ही नम्रतापूर्वक व्यक्त किया है साथ ही गूढ रहस्यों का भी सरलतापूर्वक स्फोटन किया है। पारद के संस्कारों का विवेचन भी उपर्युक्त दृष्टि से ही किया गया है। इसकी भाषा एवं शैली भी इतनी अच्छी है कि थोड़ी हिन्दी का जानकार व्यक्ति भी इसे सरलतापूर्वक हृदयङ्गम कर लेगा।
इस सुन्दर ग्रन्थ के लिए संक्षेपतः महर्षि “चरक” की वह अन्तिम पंक्ति उद्धृत करना अनुचित नहीं होगा, कि “यदिहास्ति तदन्यत्र यन्त्रेहास्ति न तत्क्वचित्”। इस ग्रन्थ के प्रणयन से श्री मिश्र ने अपने आचार्यों को भी मात दे दी है, क्योंकि उन आचार्यों को भी बड़ी प्रसन्नता होगी कि ऐसा सुयोग्य शिष्य तैयार करने में उनका भी कुछ सहयोग कारणीभूत हुआ है। कहा भी है कि “सर्वत्र विजयमिच्छेत् पुत्राच्छिष्यात्पराजयम्’।
आयुर्वेदीय रसशास्त्र मात्र एक चिकित्सा शास्त्र ही नहीं है। अपितु यह विशिष्ट शास्त्र है। इसके अतीत स्वर्णाक्षरों से लिखे गए है। रसशास्त्र के आदि आचार्य आदिनाथ स्वयं भगवान् शिव-शङ्कर ही हैं। उनके द्वारा सूत्र रूप में कथित यह शास्त्र सर्वप्रथम देहवाद के लिए प्रयुक्त हुआ था, किन्तु बाद में आचार्यों ने इसे पल्लवित, पुष्पित एवं फलित कर लोहवाद और चिकित्सावाद में विकसित किया। अनेक शताब्दियों के बाद कालदेव के थपेड़ों ने देहवाद और लोहवाद को समाप्त कर दिया। ईसा से ३०० शताब्दी पहले नागार्जुन का भारतीय क्षितिज पर अवतरित होना और उनके द्वारा बौद्धधर्म का विकास-प्रचार के साथ ही रसशास्त्र का विकास एवं प्रचार होना आश्चर्यजनक घटना है। वह नागार्जुन दानशील राजा “शालिवाहन” का मित्र था। राजा के दान से रिक्त हुए कोष को कई बार नागार्जुन द्वारा स्वर्ण निर्माण कर पुनः पुनः परिपूर्ण करना अद्भुद् घटना है। ईरानी यात्री “अलबेरूनी” ने अपने यात्रा संस्मरण में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य का राजपण्डित आचार्य व्याडि की रस साधना एवं निराश होने पर राजनर्तकी द्वारा धन देने के बाद पुनः रससिद्धि प्राप्त कर पति-पत्नी दोनों का आकाश में उड़ना और उनके मुख के थूक से राजप्रसाद का कुछ अंश स्वर्ण में परिवर्तित हो जाना रसशास्त्र के उत्थान के उज्ज्वल एवं ज्वलन्त उदाहरण है।
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