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Dhvanyalok (ध्वन्यालोकः)

297.00

Author Acharya Vishveshwar
Publisher Gyanmandal
Language Hindi & Sanskrit
Edition 2017
ISBN -
Pages 371
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code GM0004
Other श्री आनन्दवर्धनाचार्य-विरचित ध्वायलोककी हिन्दी व्याख्या

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Description

ध्वन्यालोकः (Dhvanyalok) ‘ध्वन्यालोक’ एक युगप्रवर्तक ग्रन्थ था। उसके रचयिताने अपनी असाधारण मेधा के बलपर एक ऐसे सार्वभौम सिद्धान्तकी प्रतिष्ठा की जो युग-युगंतक सर्वमान्य रहा। अचतक जो सिद्धान्त प्रचलित थे वे प्रायः सभी एकाङ्गी थे। अलङ्कार और रीति तो काव्यके बहिरङ्गका ही छूकर रह जाते थे, रससिद्धान्त भी ऐन्द्रिय आनन्दको ही सर्वस्त्र मानता हुआ बुद्धि और कलनाक आनन्दके प्रति उदासीन था। इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह था कि प्रबन्धकाव्यके साथ तो उसका सम्बन्ध ठीक बैठ जाता था, परन्तु स्फुट छन्दोंके विषयमे विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी आदिका सङ्घटन सर्वत्र न हो सकने के कारण कठिनाई पढ़ती थी और प्रायः अत्यन्त सुन्दर पदीको भी उचित गौरव न मिल पाता था। ध्वनिकारने इन त्रुटियोंको पहिचाना और सभीका उचित परिहार करते हुए शब्दकी तीसरी शक्ति व्यञ्जनापर आश्रित ध्वनिको काव्यकी आत्मा घोषित किया।

ध्वनिकारने अपने सामने दो निश्चित लक्ष्य रखे हैं-१. ध्वनिसिद्धान्तकी निर्भान्त शब्दों में स्थापना करना, तथा यह सिद्ध करना कि पूर्ववर्ती किसी भी सिद्धान्तके अन्तर्गत उसका समाहार नहीं हो सकता; २. रस, अलङ्कार, रीति, गुण और दोपविषयक सिद्धान्तोंका सम्यक् परीक्षण करते हुए ध्वनिके साथ उनका सम्बन्ध स्थापित करना और इस प्रकार काव्यके सर्वाङ्गपूर्ण सिद्धान्तकी एक रूपरेखा बाँधना। कहनेकी आवश्यकता नहीं कि इन दोनों उद्देश्योंकी पूतिमे ध्वनिकार सर्वथा सफल हुए हैं। यह सब हाते हुए भी ध्वनिसम्प्रदाय इतना लोकप्रिय न हाता यदि अभिनवगुप्तकी प्रतिभाका वरदान उसे न मिलता। उनके ‘लोचन’का वही गौरव है जो महाभाष्यका। अभिनवने अपनी तलस्पर्शिनी प्रज्ञा और प्रौढ विवेचनके द्वारा ध्वनिविषयक समस्त भ्रान्तियों और आक्षेपोंको निर्मूल कर दिया और उधर रसकी प्रतिष्ठाको अकाट्य शब्दोंमें स्थिर किया।

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