Ganavrtti (गणवृत्ति:)
₹210.00
Author | Prof. Rameshchandra Panda |
Publisher | The Bharatiya Vidya Prakashan |
Language | Sanskrit |
Edition | 1st edition, 2022 |
ISBN | 978-93-91512-13-2 |
Pages | 74 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 1 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | TBVP0040 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
10 in stock (can be backordered)
CompareDescription
गणवृत्ति: (Ganavrtti) श्री दुर्गसिंह द्वारा रचित ‘गणवृत्ति’ नामक यह ग्रन्थ कातन्त्र व्याकरण (१०० ईशवी) की परम्परा में धातुपाठ से सम्बद्ध है। पाणिनि के अर्वाचीन व्याकरणों में कातन्त्र व्याकरण अन्यतम है। इस व्याकरण के प्रवर्तक आचार्य शर्ववर्मा थे और यह व्याकरण काशकृत्स्न व्याकरण का संक्षेप है। इसलिए इसे कातन्त्र कु-का-लघु तन्त्र कहा जाता है। यह व्याकरण ‘कलापक’, ‘कौमार’ एवं ‘सारस्वत’ नाम से भी प्रसिद्ध है। इसी प्रकार कातन्त्र धातुपाठ भी काशकृत्स्न धातुपाठ का संक्षिप्त रूप है। इस धातुपाठ का परिष्कार आचार्य दुर्गसिंह ने किया था। वही परिष्कृत धातुपाठ पर दुर्गसिंह ने एक वृत्ति लिखी थी जिसे ‘गणवृत्ति’ की संज्ञा दी गई।
इस गणवृत्ति ग्रन्थ में भी इन ९ गणों का उल्लेख है। प्रत्येक गण में क्रम से परस्मैपदी, आत्मनेपदी एवं उभयपदी धातुओं के अर्थ एवं प्रयोग दिये गए हैं। परन्तु स्वादि, तुदादि, रुधादि, तनादि एवं क्रयादि गणों में धातुओं का क्रम भिन्न है जो इस प्रकार है- उभयपदी, परस्मैभाषा एवं आत्मनेभाषा। क्योंकि इन गणों में पहला धातु उभयपदी है। गणवृत्तिग्रन्थ की विशेषता यह है कि प्रत्येक धातु का प्रयोग यहाँ उपलब्ध है। अन्यत्र किसी भी धातुपाठ में प्रयोग उपलब्ध नहीं है।
दुर्गसिंह ने अपनी गणवृत्ति में कुछ अन्य धातुपाठों से असहमति प्रकटित की है। श्री सायणाचार्यविरचित माधवीय धातुवृत्ति में भ्वादि गण में टुभ्राजू, दुभ्राशृ, टुभ्लाशृ दीप्तौ का उल्लेख है जिससे गणवृत्तिकार दुर्गसिंह जी की सहमति नहीं है। वे कहते हैं-“टुभ्राज टुभ्राश टुभ्नाश दीप्तौ ।…..। केचिदमीषां ऋदन्तानुबन्ध-त्वमादृतवन्तः। तदिहासम्मतम्।” (गणवृत्ति, पृ० २५-२६) अर्थात् जो लोग टुभ्राजू टुभ्राशृ टुभ्लाशृ ऋदन्त धातुओं को मानते हैं जैसे कि श्री सायणाचार्यजी, उनसे दुर्गसिंहजी सहमत नहीं है। पुनश्च ‘टुवम उद्भिरणे’ धातु के उदाहरण (वमति वातकी भुक्तमन्नम्) प्रदान करने के पश्चात् एक दूसरा मत दुर्गसिंह के द्वारा प्रदत्त किया गया। वह मत इस प्रकार है- “केचिदमुमुदनुबन्धं पठन्ति। तन्मते इडभावः। अस्माकं तु वमित इत्येव।” अर्थात् कुछ विद्वानों के मत में ‘वम्’ धातु से निष्ठा प्रत्यय के विधान होने पर ‘आदितश्च’ सूत्र के द्वार इट् का निषेध होता है। अतः वम्+क्त = वान्त, वम् + क्तवतु वान्तवत् रूप बनते हैं। यह मत वृत्तिकार का है। दुर्गसिंह के मत में ‘वमित’ ही बनते हैं।
इस प्रकार दुर्गसिंह ने अपनी गणवृत्ति में अनेक स्थान पर कहीं पर नामोल्लेख कर कही पर ‘केचित्’ इत्यादि शब्दों से दूसरे आचार्यों के मतों का प्रतिपादन किया है। ग्रन्थकर्ता के सम्बन्ध में अधिक जानकारियाँ उपलब्ध नहीं है। युधिष्ठिर मीमांसक ने ग्रन्थकर्ता के बारे में स्वरचित संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास में कुछ विचार प्रस्तुत किया है (प्रथम भाग, पृ० ६४३-४४) मीमांसक जी के मत में दुर्गसिंह का काल नवमी शताब्धि है (व्याकरणशास्त्र का इतिहास, पृ० ६५४)। संस्कृत के अध्यापकों एवं छात्रों के लिये यह गणवृत्तिग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा- यह हमारा विश्वास है। यह गणवृत्ति ग्रन्थ मुझे श्री आनन्द राम वहुबा के द्वारा रचित ‘धातुवृत्तिसार’ ग्रन्थ से प्राप्त हुआ है।
Reviews
There are no reviews yet.