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Gurugita Tatha Yathartha Gurutattva (गुरुगीता तथा यथार्थ गुरुतत्त्व)

106.00

Author S.N. Khandelwal
Publisher Chaukhamba Krishnadas Academy
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2020
ISBN 978-81-7080-529-8
Pages 141
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0401
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Description

गुरुगीता तथा यथार्थ गुरुतत्त्व (Gurugita Tatha Yathartha Gurutattva) पुस्तक अध्यात्म का एक अनमोल ग्रन्थ है। जिसके लेखक एस एन खण्डेलवाल जी है। इस पुस्तक में कुल 141 पृष्ठ है, जो पेपरबैक संस्करण में उपलब्ध है। वर्त्तमान में पुस्तक का प्रथम संस्करण उपलब्ध है जो २०२० में प्रकाशित है। यह पुस्तक चौखम्बा कृष्णदास अकादमी द्वारा प्रकाशित की गई है।

भारतीय साधन धारा में गुरुतत्त्व का विशेष स्थान है। यद्यपि गुरु के स्वरूप तथा उसकी विशिष्ट सत्ता के प्रति सभी आध्यात्मिक चिन्तक एकमत नहीं हैं, तथापि प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से गुरुतत्त्व का प्रभाव सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। जहां शरीरी गुरु की सत्ता को मान्यता नहीं दी गयी है; वहां अशरीरी सत्ता अथवा प्रातिभज्ञान ही गुरुतत्त्व का स्वरूप ग्रहण करने लगता है। कहीं-कहीं आत्मा अथवा चैतन्य ही गुरुतत्त्व रूप से स्वीकार्य है। जो आधुनिक चिन्तक प्रत्यक्ष रूप से किसी गुरु की स्थिति को मान्यता नहीं देते, उन्हें भी अन्तरात्मा को प्रेरक रूप में स्वीकार करना ही पड़ता है। यह स्थिति केवल आधुनिक चिन्तकों में ही नहीं रही है, प्रत्युत अत्यन्त प्राचीन काल में भी अन्तरात्मा, प्रत्यगात्मा अथवा हद्देशस्थ चैतन्य की उस सत्ता को स्वीकार किया गया है, जो साधक की समस्त जिज्ञासा अथवा समस्याों का अपरूप समाधान उपस्थित कर देती है।

साधक की दृष्टि में गुरुतत्त्व सर्वकाल तथा सर्वदेश में साधक के लिये आराध्य रूप से प्रकट होता है। इसके आश्रय से सद्‌गति होती है। स्तब्धता की विमूढ़ावस्था का अवसान होता है। यहां यह ज्ञातव्य है कि शास्त्रों में गति की चर्चा की जाती है। साधना भी एक प्रकार की गतिशीलता का ही द्योतन कराती है। निम्न आयाम से ऊर्ध्व आयाम की ओर की गतिशीलता ही साधना है। मध्याकर्षण से त्राण दिला कर ऊर्ध्वाकर्षण की धारा में गतिशील हो जाने पर प्राप्तव्य से मिलन की संभावना का उदय होने लगता है। मोक्ष भी गति ही है। इसे देवयान गति कहा जाता है। ब्रह्मभाव, परमात्मभाव अथवा भगवद्भाव में आरूढ़ होने के लिये भी जीवत्वावरण का गतिमान होकर भेदन करना होता है। तदनन्तर ऊर्ध्वातिऊर्ध्व गतिधारा के आकर्षण में पड़ना आवश्यक है। ब्रह्मभाव की प्राप्ति हो जाने पर भी शक्तिमान साधक की गति की समाप्ति नहीं हो जाती। वह ब्रह्मभाव से परमात्मभाव के पथ पर गतिशील हो जाता है। परमात्मभाव की सम्यक् उपलब्धि के अनन्तर भी यथार्थ योगी की गति का अन्त नहीं हो जाता। वह महाभाग्यवान योगी परमात्मभाव से पुनः गतिशील होकर भगव‌द्भाव की यात्रा करता है। भगवद्भाव की प्राप्ति भी गति का अवसान नहीं है। भगवद्भाव को प्राप्त महायोगी की सत्ता उस भगवद्भाव के अनन्त आयाम में गतिशील रहती है जो अनन्त है, उसका कभी भी अन्त नहीं है।

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