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Manusmriti (मनुस्मृति:)

127.00

Author Pt. Sri Hargovind Shastri
Publisher Chowkhamba Krishnadas Academy
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2022
ISBN -
Pages 179
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0402
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Description

मनुस्मृति: (Manusmriti) सृष्टि का यह नियम है कि चौरासी लाख योनियों में से किसी भी योनि में उत्पन्न प्राणी अधिक से अधिक सुख पाना चाहता है, उनमें से प्रायः मनुष्य-योनि ही ऐसी योनि है, जिसमें उत्पन्न होकर वह प्राणी पुण्य कर्मों के द्वारा सुख-साधन का उपार्जन तथा मोक्षलाभ भी कर सकता है। शेष समस्त योनियों में तो प्राणियों के कमों का क्षय मात्रा होता है। उसमें सुख-दुःख का साधनभूत क्रमशः पुण्यापुण्य कमाँ का उपार्जन प्रायः नहीं होता। इनका उपार्जन तो एकमात्र मनुष्य योनि में ही होता है, इसी कारण महर्षियों ने इस योनि को सर्वश्रेष्ठ माना है।”
‘कदाचिल्लभते जन्म मानुष्यं पुण्यसञ्चयात्।’
अन्यच्च –
‘नरत्वं दुर्लभं लोके………………|’
प्राणी के सुख-दुःख का कारण पूर्वकृत पुण्य-पाप अर्थात् धर्म-अधर्म ही है, यही कारण है कि एक समान ही व्यापारादि करने वाले प्राणियों में से कोई सफल तथा कोई असफल होता हुआ देखा जाता है। इसके अतिरिक्त पूर्वकृत किसी पुण्यातिशय से उत्तम मनुष्य-योनि में जन्म पाकर भी अनेक प्राणी अन्यान्य जघन्य कमों के प्रभाव से दुःखी तथा किसी-किसी अत्यन्त जघन्य कर्म के प्रभाव से घोड़ा-कुत्ता आदि तिर्यग्योनि में जन्म पाकर भी अनेक प्राणी पूर्वकृत अन्यान्य पुण्य कर्मों के प्रभाव से मानव-दुर्लभ भोगोपभोग साधनों के मिलने से सुखी देखे जाते हैं; अतएव यह मानना पड़ता है कि प्राणी को पूर्वकृत कर्मों के अनुसार ही सुख-दुःख की प्राप्ति होती है और ये ही पूर्वकृत पुण्य-अपुण्य कर्म दैव या भाग्य कहे जाते हैं-
‘पूर्वजन्मकृतं कर्म तदैवमिति कथ्यते।’
अब यहाँ प्रश्न यह है कि-किसको पुण्य कर्म तथा किसको अपुण्य कर्म माना जाय? इसका सरल एवं सर्वसम्मत उत्तर यह है कि वेद तथा स्मृति में विहित कर्म ही धर्म तथा तद्विरुद्ध कर्म अधर्म है-
‘श्रुतिस्मृतिविहितं कर्म धर्मस्तद्विपरीतमधर्मः ।’
तथा- ‘वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्।’ (मनु २/६)

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