Jyotish Chandrika (ज्योतिष चन्द्रिका)
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Author | Dr. Kanta Bhatiya |
Publisher | Bharatiya Book Corporation |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edistion, 2021 |
ISBN | 978-81-85122-75-5 |
Pages | 226 |
Cover | Paper Back |
Size | 13 x 0.5 x 18 (l x w x h ) |
Weight | |
Item Code | TBVP0061 |
Other | Dispatched In 1 - 3 Days |
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ज्योतिष चन्द्रिका (Jyotish Chandrika) आकाश में स्थित ज्योर्तिपण्डों के संचार और उनसे बनने वाले गणितागत पारस्परिक सम्बन्धों के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण करने वाली विद्या का नाम ही ज्योतिष है। ज्योतिष शब्द ज्योति = तारा तथा ष = गणक या भाग्यवेत्ता इन दो शब्दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ है तारों अर्थात् आकाश में स्थित ज्योति-पिण्डों की स्थिति, उनकी दूरी तथा उनके परस्पर सम्बन्धादि की गणना के द्वारा भाग्य का शुभ-अशुभ फल बताने वाली विद्या।
ज्योतिष शास्त्र को वेद का चक्षु कहा जाता है। जिस प्रकार नेत्रवान पुरुष नेत्रों से देखकर मार्ग की रुकावटों से बच सकता है उसी प्रकार ज्योतिष द्वारा भूत वर्तमान एवं भविष्य में सभी, आचार, विचार, देशकाल की परिस्थिति की जानकारी हो सकती है तथा सम्पूर्ण शुभ अशुभ को जानकर कष्टों से बचने के उपाय किये जा सकते हैं –
प्रयोजनं तु जगतः शुभाशुभनिरूपणम्।
वेद के शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द व्याकरण एवं ज्योतिष इन छह अंगों मे ज्योतिष का विशिष्ट स्थान है। अनिष्ट का परिहार और इष्ट की प्राप्ति यही वेद का परम प्रयोजन है। इष्ट की प्राप्ति के लिए ही वेद में विविध यज्ञों का विधान है। अनिष्ठ का परिहार करने के लिए अनिष्ट (अशुभ) का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है यही कार्य ज्योतिष करता है। ज्योतिष द्वारा अनिष्ट का ज्ञान होने पर अनिष्ट के परिहार का उपाय कर इष्ट की प्राप्ति की जा सकती है। अतः शुभ, अशुभ काल का दर्शन कराने के कारण ही ज्योतिष वेद का चक्षु कहा गया है। इसके अतिरिक्त यज्ञों के लिए इष्टिका चयन, वेदी निर्माणादि का काल निर्धारण भी ज्योतिष द्वारा ही किया जाता है। इसीलिए ज्योतिष वेद का प्रमुख अंग है।
कर्म सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य को तीन प्रकार के कर्मों का फल भोगना, पड़ता है। (१) सञ्चित कर्म, (२) प्रारब्ध कर्म तथा (३) क्रियमाण कर्म। अनेक जन्मों में किये गये कर्मों का संग्रह सञ्श्चिम कर्म कहलाता है। एक ही जन्म में पूर्व जन्मों के सभी कर्मों का फल नहीं भोगा जा सकता। अतः जो कर्म बच जाते हैं उनको भोगना तो अवश्य ही पड़ता है। अतः जब प्राणी जन्म लेता है तो उसे अपने जीवन काल में सञ्चित कर्मों के फलों को भोगना पड़ता है। जितने कमों का फल उसे उस जीवन में भोगना होता है। उन्हें ही प्रारब्ध कर्म कहते हैं अर्थात् प्राप्त जीवन काल में सञ्चिम कर्मों में से भोगे जाने वाले कर्म ही प्रारब्ध कर्म है। जीवन प्राप्त करने के बाद जो नये कर्म उस जीवन काल में किये जाते हैं। उन्हें क्रियमाण कर्म कहते हैं। ज्योतिष शास्त्र उन प्रारब्ध कर्मो के शुभ अशुभ फल का ग्रहों, नक्षत्रों की आकाशीय स्थिति, उनकी परस्पर दूरी, तथा परस्पर सम्बन्ध के द्वारा ज्ञान करवाता है।
ग्रहों की गोचरीय स्थिति (वर्तमान समय में आकाश में ग्रहों राशियों एवं नक्षत्रों की स्थिति) के आधार पर क्रियमाण कमों के शुभत्व एवं अशुभत्व का ज्ञान भी ज्योतिष द्वारा होता है। यहाँ ध्यान रहे कि ग्रह फलाफल के नियामक नहीं है। अर्थात् किसी को सुख दुःख देते नहीं अपितु आने वाले सुख-दुःख की सूचना देते हैं। जिससे मानव भविष्य में आने वाले सुख दुःख को जानकर अपने कार्यों के प्रति सजग हो सके।
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