Karnabharam (कर्णभारम्)
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Author | Shree Vaidyanath Jha |
Publisher | Chaukhambha Krishnadas Academy |
Language | Hindi & Sanskrit |
Edition | 2017 |
ISBN | - |
Pages | 41 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0662 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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कर्णभारम् (Karnabharam) नाटकों को उत्पत्ति के कारणों पर ध्यान देने से स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि काव्य के सम्पूर्ण अवयवों में नाटक का स्थान अधिक महत्त्वपूर्ण है। नाटक की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक कथा आती है कि राक्षसों के साथ युद्ध करते-करते जब इन्द्रादि देवता थक गये तब उन्होंने अपने मनो-विनोद के लिये ब्रह्मा से कहा- जैसे-महेन्द्र
प्रमुखैर्देवैरुक्तः किल पितामहः । क्रीडनीयकमिच्छामो दृश्यं श्रव्यञ्च यद्भवेत् ॥
देवताओं के इस आग्रह से प्रभावित होकर ब्रह्मा ने दृश्य और धव्य “नाटक” नामक पाँचवें वेद का निर्माण करके, “भरत” मुनि को आदेश दिया कि “आप – इस अनुपम बेद को पृथ्वी पर लाकर उसका प्रचार करें। जिसमें सम्पूर्ण शास्त्रों का तत्त्व निहित है और जो सभी कलाओं का प्रदर्शक है। कहा भी गया है-
सर्वशास्त्रार्थसम्पन्न सर्वशास्त्रप्रदर्शकम् । नाट्य-संज्ञमिमं वेदं सेतिहास करोम्यहम् ।।
नाटक की सर्वाधिक रमणीयता की पुष्टि कालिदास की इस उक्ति से भी होती है – “नाट्यं भिन्नरुचेर्जनस्य बहुधाप्येकं समाराधनम्”। तात्पर्य यह है कि संसार में सभी मनुष्यों की रुचि एक सी नहीं होती। किसी को एक वस्तु अच्छी छगती है तो दूसरे को दूसरी बस्तु। कोई गीत और अभिनय कला को ही प्रेमसे स्वीकार करता है तो कोई नीति पूर्ण एवं प्रेम पूर्ण कथाओं में ही अपनी उत्कट अभिरुचि प्रर्दाशत करते हैं। नाटक में एक साथ ही सभो बस्तुओं का समावेश हो जाता है। नाटक में कहों तो अतिशय आनन्द दायक कथोपकथन का विन्यास रहता है तो कहीं पर पत्थर की तरह कठोर वस्तु को भी पिघलाने बाला गीत-संलाप। यही नहीं, कहीं-कहीं दर्शकों को हास्य में हुबा देने वाले शारीरिक वाचनिक और मानसिक चेष्टाओं के प्रदर्शन का अवसर भी मिल जाता है। परिणाम स्वरूप नाटक में एक साथ ही विभिन्नरुचि बाले दर्शकों का मनोरन्जन हो जाता है। नाटक के अतिरिक्त अन्य किसी काव्याङ्ग में यह विशेषता देखने को नहीं मिल सकती है जो कि एक ही स्थान पर मानव-मात्र को अलौकिक आनन्द प्रदान कर सके।
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