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Katha Kusum Saurabham (कथाकुसुमसौरभम)

361.00

Author Nityanand Mishra
Publisher Chaukhambha Viswabharati
Language English & Sanskrit
Edition 2022
ISBN 978-93-91730-06-2
Pages 303
Cover Paper Back
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CVB0007
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Description

कथाकुसुमसौरभम (Katha Kusum Saurabham) संस्कृत भाषा के शिक्षण की दो पद्धतियाँ अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित रही हैं। पहली में नियमनिर्देश करके तदनन्तर उदाहरण देते हुए निगमन किया जाता है। पाणिनि की अष्टाध्यायी तथा उसकी परम्परा में लिखित महाभाष्य, काशिका, रूपावतार, सिद्धान्तकौमुदी आदि ग्रन्थ इस प्रक्रिया का अनुसरण करते हैं। इस प्रक्रिया में भाषा के प्रायोगिक शिक्षण की अपेक्षा व्याकरण का ज्ञान अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। भाषाशिक्षण की दूसरी पद्धति दार्शन्तिक पद्धति है, जो व्यावहारिक दृष्टि से अधिक उपादेय है। इसका निहितार्थ यह है कि भाषाज्ञान के लिये दृष्टान्तस्वरूप पाठ्यसामग्री पहले तैयार की जाये और उसका बोध कराया जाये, तो भाषा हमारे वाग्व्यवहार में स्वतः अवतरित होती जाती है।

मीमांसा दर्शन में अन्विताभिधानवाद के अन्तर्गत अखण्ड वाक्य से अखण्डार्थबोध को स्पष्ट करते हुए कहा गया कि वाक्यों से समग्र अर्थ का बोध हो जाने पर पद और पदार्थ का ज्ञान तत्पश्चात् स्वतः होता जाता है। पश्चिम के भाषाशास्त्रियों में नाम चाम्स्की ने भी अपने जेनेरेटिव ग्रामर के सिद्धान्त में इस तथ्य को स्वीकार किया है। यदि इस प्रणाली में एक से अधिक भाषाओं का आश्रय लिया जाये, तो मणिकाञ्चन योग हो जाता है, और इसकी उपादेयता तथा रोचकता भी तदनुसार बढ़ जाती है। शताब्दियों से संस्कृत काव्यों के टीकाकार टीकाग्रन्थों में इस प्रविधि का उपयोग करते रहे हैं। प्राकृत पद्यों को सहज बोधगम्य बनाने के लिये उनकी संस्कृत छाया की जाती है, और वे संस्कृतज्ञ समाज द्वारा आसानी से समझ लिये जाते हैं। आज भी भारतीय विश्वविद्यालयों के संस्कृत विभागों में संस्कृत का अध्यापन अन्य भाषाओं से संस्कृत में तथा संस्कृत से मातृभाषा में अनुवाद करते हुए किया जाता है, जो सर्वथा समीचीन है। पालि और प्राकृत भाषाओं का अध्यापन संस्कृत छाया की पद्धति से इन विभागों में हो रहा है, वह भी सर्वथा उचित है।

दामोदर शर्मा ने पुरानी कौशली (अवधी) के माध्यम से बोलचाल की संस्कृत सिखाने के लिये बारहवीं शताब्दी में उक्तिव्यक्तिप्रकरण नामक पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक में पण्डित दामोदर ने सम्भाषण-संस्कृत सिखाने के लिये भाषाओं की पारस्परिकता के उपयोग की पद्धति अपनाई है। जिस भाषा को सिखाना है, केवल उसी में सम्भाषण व लेखन का अभ्यास कराते रहने से शिक्षार्थी भाषाओं की पारस्परिकता के द्वारा प्राप्य होने वाले वाग्वैभव से वह वंचित रह जाता है। भाषाएँ एक दूसरे को पोसती हैं। एक भाषा का ज्ञान इतर भाषा के ज्ञान को परिपूर्णता देता है।

कथाकुसुमसौरभम्

साहित्य के द्वारा भाषा शिक्षण एक सुपरीक्षित स्थापित प्रणाली रही है। गुरुकुल प्रणाली सहस्त्रों वर्षों से हमारे देश में इस पद्धति से ही पाठ्यचर्या निर्मित की जाती रही और इस प्रणाली बड़े-बड़े पण्डितों को जन्म दिया। अनेक काव्य और कचाग्रन्थ भी भाषा और व्याकरण सिखाने के लिये लिखे जाते रहे हैं। इनमें महाकवि भट्टि का भट्टिकाव्य प्रौढ, सरस और उत्तम महाकाय भी है और पाणिनि व्याकरण के क्रमशः अध्ययन और बोध के लिये भी उपादेय है। इसी परम्परा में बीसवीं शताब्दी में रामशरण त्रिपाठी ने कौमुदीकथाकल्लोलिनी ग्रन्थ की रचना की।

बहुश्रुत शास्त्रज्ञ तथा संस्कृतशिक्षाविदू श्री नित्यानन्द मित्र ने अपनी इस पुस्तक में संस्कृत भाषा सिखाने के लिये सहस्साब्दियों से मान्य रही इस प्रविधि का तो सटीक उपयोग किया ही है, भाषा शिक्षण के सभी उपादान अपना कर उन्होंने इस संग्रह को संस्कृत के अध्येताओं के लिये सर्वांगीणतया उपादेय बना दिया है। बहुभाषिकता का रचनात्मक उपयोग मिश्र जी ने इस पुस्तक के निर्माण में किया है। मिश्र जी इस प्रविधि का वर्षों से सफल प्रयोग करते आ रहे हैं। उनके कार्य की दुर्लभ विशेषता यह रही है कि उनीसवीं और बोसवों शताब्दी की संस्कृत जगत् की बड़ी विभूतियों के द्वारा संस्कृत शिक्षण के लिये तैयार की गई पुस्तकों का परीक्षण करते हुए उनके संस्कृत भाषा के अध्यापन में विनियोग पर वे सार्थक विमर्श भी करते रहे हैं।

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, महालिंग शास्त्री, विनायक पांडुरंग बोक्कील, रामकृष्ण गोपाल भंडारकर आदि पण्डितों ने संस्कृत भाषा सिखाने के लिये जिन पाठमालाओं की रचना की, उनमें से बहुसंख्य अब लुप्त हो गई हैं। नित्यानन्द मित्र ने संस्कृत साहित्य के भाण्डागार की विस्मृत और उपेक्षित निधियों में से एक का इस दृष्टि से पुनराविष्कार किया है, जिसके लिये वे अभिनन्दनीय हैं। कालजयी रचनाकार पण्डित अम्बिकादत व्यास की कथाकुसुमम् संवत् १९४४ में रची गई तथा इसी वर्ष खङ्गविलाम प्रेस बाँकीपुर से प्रकाशित हुई। अपने रचनाकाल प्रकाशनवर्ष के १३५ वर्ष बाद भी यह कृति संस्कृत भाषा के शिक्षण के लिये कितनी उपादेय है, यह मिश्र जी के प्रस्तुत प्रयास से सिद्ध है।

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