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Kram Sadhna (क्रमसाधना)

59.00

Author Pt. Gopinath Kaviraj
Publisher Vishwavidyalay Prakashan
Language Hindi
Edition 2nd edition, 2012
ISBN 978-81-89498-54-2
Pages 116
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code VVP0135
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Description

क्रमसाधना (Kram Sadhna) प्रातःस्मरणीय ऋषिकल्प वाणीमूर्ति कविराज जी के अन्तराकाश में क्रमिक साधना का जो आविर्भाव हुआ था, उसका वाङ्गमय विग्रह ‘क्रमसाधना’ के रूप में आज अपना आत्मप्रकाश कर रहा है। उपलब्धि तथा साक्षात्कार की चरम स्थिति पर आसीन प्रातिभ ज्ञान सम्पन्न मनीषीगण के लिये क्रमसाधना का कोई मूल्य नहीं होता, क्योंकि परमेश्वर के तीव्रातितीव्र शक्तिपात के कारण वे अक्रम रूप से, युगपत् रूप से, तत्काल, कालावधिरहित स्थिति में परम ज्ञान तथा परमप्राप्तव्य से एकीभूत हो जाते हैं, तब भी पशुपाश में आबद्ध, मोहकलित प्राणीमात्र के लिये दयापरवश होकर वे क्रमसाधना की व्यवस्था करते हैं। साधारण प्राणी अक्रम ज्ञान की अवधारणा कर सकने में पूर्णतः अक्षम है। उसका अस्तिव, अधिकार तथा पात्रता अभी निम्नभूमि में ही आबद्ध है। उसे स्तरानुक्रम से, एक-एक स्तर का अतिक्रमण करते हुये, उर्ध्वपथ का पथिक बनना होगा। क्रमशः क्रमिक साधना का अवलम्बन लेकर आत्मसत्ता पर आच्छन्न जाड्यतम को अपसारित करना होगा, इसके अतिरिक्त कोई मार्ग ही नहीं है।

इस क्रम साधना के मूलाधार हैं श्री गुरु। इस कारण इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में सर्वप्रथम परात्पर गुरुतत्त्व से सम्बन्धित उपदेश का संयोजन किया गया है। इस प्रसंग के अन्तर्गत् परात्पर गुरुरहस्य, विकासक्रम, गुरु का स्थान एवं महत्त्व, दीक्षा अर्थात् परानुग्रह शीर्षक उपदेश क्रमिक रूप से संयोजित हैं। इन सबका सार यह है कि गुरु, शास्त्र तथा स्वभाव ही शुद्धविद्या के उदय के कारक हैं। इनमें स्वभाव मुख्य है। गुरुवाक्य से अथवा शास्त्रवाक्य से जो बोध होता है, उसमें भी स्वभावरूपी अपना बोध ही प्रधान है। यदि व्यक्ति में अपना बोध नहीं है तब शास्त्र अथवा गुरुरूप कारक भी उसका हित साधन नहीं कर सकते। इसी कारण स्वभाव सर्वप्रधान माना गया है। अतः स्वभाव ही गुरु है। स्वभावसिद्ध को वाह्यगुरु की तथा वाह्यशास्त्र की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती।

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