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Shri Krishna Prasang (श्रीकृष्ण प्रसङ्ग)

170.00

Author Pt. Gopinath Kaviraj
Publisher Vishwvidyalay Prakashan
Language Hindi
Edition 2022
ISBN 978-81-7124-987-9
Pages 247
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code VVP0134
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Description

श्रीकृष्ण प्रसङ्ग (Shri Krishna Prasang) यह प्रसङ्ग किसी विशेष वैष्णव सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से लिखित न होने पर भी किसी-किसी वैष्णव-साधक-सम्प्रदाय के भाव इसमें अवश्य हैं। यहाँ तक कि अवैष्णव दृष्टिकोण भी इसके अपरिचित नहीं है। जिनके व्यक्तिगत मनन के लिए इसका सङ्कलन हुआ था वे किसी विशेष सम्प्रदाय के अवलम्बी न होने पर भी सभी सम्प्रदायों के दृष्टिकोणों को समान श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे। कहना न होगा, उन्हीं के भाव से भावित होकर मुझे लिखना पड़ा था।

ये प्रसङ्ग जब लिखे गये तब यह कल्पना मुझे व स्वामी जी को भी बिल्कुल नहीं थी कि बाद में कभी ये प्रकाशित होंगे। स्वामी जी जब तक रहे तब तक ये पुस्तिकायें उनकी साधना की नित्यसङ्गी रूप से साथ-साथ रहती थीं। सन् १९५९ में उनका देहावसान होने के पश्चात् ये उनकी भक्तमण्डली द्वारा यत्न-पूर्वक सुरक्षित कर दी गयीं। किन्तु सुरक्षित होने पर भी इनका भविष्य अनिश्चित समझ कर स्वामी जी के भक्त व मेरे अपार स्नेहभाजन स्वर्गीय डॉक्टर शशिभूषण दासगुप्त ने तब पुस्तिकायें मुझे सौंप देने की इच्छा प्रकट की। समय की स्थिति के अनुसार कुछ दिन बाद मैंने भी इसे उचित समझा। तदनुसार श्रीमान् सदानन्द इन पुस्तिकाओं सहित स्वामीजी का गेरुआ झोला मुझे दे गये। सदानन्द के अपने हाथ के लिखे कागज भी मेरे पास थे। एक वर्ष से कुछ अधिक समय तक ये मेरे पास आकर भी पड़े ही रहे।

इन प्रसङ्गों के प्रकाशन के लिए कभी-कभी मेरी इच्छा होती थी। ऐसा प्रतीत होता था कि रुचि विशेष होने पर किसी-किसी को ये अच्छे लग सकते हैं, किन्तु इच्छा होने पर भी वह कार्यान्वित नहीं हुई। इसी बीच श्रीमान् सदानन्द ने स्वामीजी के ‘यज्ञ’ नामक ग्रन्थ के प्रकाशन के पश्चात् मेरे पास इच्छा प्रकट की कि ‘श्रीकृष्ण- प्रसङ्ग’ प्रकाशित हो जाय तो अच्छा हो, एवं यह भी कहा कि वे स्वयं ही प्रकाशन का भार लेंगे, एवं ग्रन्थ मेरे ही पास काशी में मुद्रित होगा। ये लेख स्वामीजी के प्रिय थे, अतः उनके भक्तों द्वारा भी ये सम्भवतः सादर गृहीत होंगे। मैंने भी सोचा कि इतने दिनों के परिश्रम के फल का उपेक्षित होकर नष्ट हो जाने की अपेक्षा प्रकाशित होना हो युक्तिसङ्गत है। इसीलिए, प्रकाशन के लिए न लिखे गये होने पर भी, इनके प्रकाशनार्थ मैंने अनुमति दे दी।

कहना न होगा कि यह ग्रन्थ स्वतः पूर्ण होने पर भी एक प्रकार से असम्पूर्ण है। क्योंकि किसी विषय पर विशद आलोचना बाद में की जायेगी-कहा होने पर भी, करने का अवसर नहीं आया है। एवं ऐसा लगता है कि किसी-किसी विषय में किसी-किसी स्थल पर थोड़ी पुनरुक्ति भी हुई है। अवश्य ही वह विषय के स्पष्टीकरण के लिए की गई होने से क्षन्तव्य है।

बँगला में मुद्रण आरम्भ होते ही मैंने अशेष स्नेहभाजन सुश्री प्रेमलता शर्मा से इसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत करने के विषय में अनुरोध किया। उन्होंने सहर्ष इस कार्य को अपनी देख-रेख में अपनी अनुजा कु० ऊर्मिला शर्मा द्वारा आरम्भ करा दिया और मूल बँगला-प्रकाशन के पाँच मास के भीतर ही हिन्दी अनुवाद सम्पन्न हो गया। मूल में शब्दानुक्रमणिका नहीं दी जा सकी थी, हिन्दी अनुवाद के साथ इसके भी समावेश से अनुवाद की उपयोगिता में अवश्य वृद्धि हुई है।

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