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Madhyamik Darshan Ka Shunyavad (माध्यमिक दर्शन का शून्यवाद)

446.00

Author Prof. Bhagchandra Jain
Publisher Bharatiya Books
Language Hindi
Edition 2023
ISBN 978-93-92974-04-5
Pages 192
Cover Hard Cover
Size 14 x 3 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code TBVP0218
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Description

माध्यमिक दर्शन का शून्यवाद (Madhyamik Darshan Ka Shunyavad) माध्यमिक दर्शन का शून्यवाद आध्यात्मिक और दार्शनिक एवं बौद्ध दर्शन दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। शून्यवाद माध्यमिक दर्शन का एक विशिष्ट प्रभाविक सिद्धान्त रहा है जिसके बीज पालि त्रिपिटक में उपलब्ध होते हैं। हीनयान सम्प्रदाय में उसे पुद्गल नैरात्म्य कहा गया है। महायान दर्शन में धर्मनैरात्म्य की कल्पना का विस्तार हुआ और फलतः शून्यवाद की स्थापना हुई। सौत्रान्तिक दर्शन में बाह्य पदार्थों का प्रत्यक्षतः ज्ञेय नहीं माना गया। विज्ञानवाद में उनकी सत्ता चित्तमात्र के रूप में स्वीकृत हुई। परन्तु माध्यमिक दर्शन में बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के पदार्थों का अस्तित्व अस्वीकार कर दिया गया। उन्होंने पदार्थों को न सत् माना और न असत् और न ही अनुभय माना बल्कि उसे चतुष्कोटियों से विनिर्मुक्त कहा। इसलिए उसे अभावात्मक न कहकर निरपेक्ष होने के कारण शून्यात्मक स्वीकार किया। लंकावतार में इसी शून्यता को कदलीसम, स्वप्नोपम जैसे शब्दों से उपलम्भित किया गया है। यही इसका धर्मनैरात्म्य है। आर्यदेव ने इसी को योगाचार शास्त्र कहा है। उनके पूर्व नागार्जुन ने प्रत्ययजन्य होने के कारण भावात्मक कहा है, अभावात्मक नहीं। इसलिए उसे परमार्थ और प्रपंचोपशम भी कहा गया है। लगभग पंचम-षष्ठ शताब्दी में उसमें प्रासंगिक और स्वातन्त्रिक शाखाओं का जन्म हुआ जिनकी स्थापना क्रमशः बुद्धपालित और भावविवेक ने किया। शान्तिदेव और शान्तरक्षित ने उन्हें संवर्धित किया।

इसी शून्यवाद को हमने नागार्जुन की माध्यमिक कारिका (माध्यमिक शास्त्र) तथा आर्यदेव के चतुःशतक के आधार पर विवेचित किया है। साथ ही तिब्बती आचार्य चौड्ाखापा के योगदान को भी प्रस्तुत किया है। आशा है, बौद्धदर्शन के विधार्थियों को शून्यवाद के समझने में सुविधा होगी। इसी के साथ जैनाचार्यों ने इसके खण्डन में अपने जो तर्क प्रस्तुत किये है उनको भी हमने इसी के साथ जोड दिया है।

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