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Manusmriti (मनुस्मृति)

170.00

Author Dr. Rajendra Upadhyay
Publisher Bharatiya Vidya Sansthan
Language Hindi & Sanskrit
Edition 1st edition, 2012
ISBN 978-93-81189-14-6
Pages 422
Cover Paper Back
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code BVS0227
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Description

मनुस्मृति (Manusmriti) विश्व में भारतवर्ष ही कर्मभूमि कहा गया है। इसके अतिरिक्त सारे देशों को “भोग्यभूमि” कहा गया है। भारतवर्ष में प्राचीनकाल से ही वेदोक्त धर्म परम्परा को “सनातन धर्म” माना जाता है। त्रऋषियों द्वारा राग-द्वेष रहित जिन वैदिक कर्मों का सेवन किया गया अथवा उपदेश किया गया वही धार्मिक परम्परा के रूप में मान्य होता हुआ चला आ रहा है। धार्मिक जगत में प्रायः सभी प्राणी इस निर्णय को मानते हैं कि पूर्वजन्मार्जित पुण्य के प्रभाव से ही यह जीव अनेक योनियों को भोगता हुआ दुर्लभ मनुष्ययोनि में जन्म लेता है, किन्तु इस मनुष्य योनि में जन्म लेकर भी अधिकतर जीव जन्मान्तरीय अन्य योनियों के जन्मौतपन्न दुःखों का अनुभव करता है-ऐसा ऋषियों ने कहा है। इसका कारण पूर्वजन्मार्जित पुण्य और पाप को ही माना है। किन्तु इस पुण्यादि कर्मों को बताने वाला वेद ही है और वेद सभी प्राणियों को दुज्ञेय होने के कारण तद्रीत्यानुसार स्मृति को ही प्राधान्य है ऐसा वेदज्ञ लोगों का निर्णय है। स्मृतियों में मनुस्मृति की ही प्रधानता है। प्राचीनकाल में मनु आदि राजाओं ने वैदिक धर्मानुसार प्रजाओं पर शासन किया है। उस धर्मशास्त्र को ही स्मृति भी कहा है। इन्हीं श्रुतियों एवं स्मृतियों के कहे गये धर्मानुष्ठान से मानवों का कल्याण होता है, जिससे मर्त्य लोक में सुख और कीर्त्ति प्राप्त कर परलोक में भी सुख पाया जाता है, उसे स्मृति कहना कोई अन्योक्ति नहीं होगी। धर्म में चार प्रमाण कहा गया है, सम्पूर्ण वेद और उसको जानने वाले, मनु आदि से कही गयी स्मृतियों, तदनुसार स्वभाव और आचार तथा सज्जनों के जिस कर्म से आत्म सन्तुष्टि होती है। सभी स्मृतियों में मनुस्मृति ही सर्वग्राह्य है। ये ही चार धर्म के प्रमाण है। इसी उपयोगिता और सर्वलोकप्रियता को समझते हुए भारतीय विद्या संस्थान, वाराणसी के संस्थापक श्री कुलदीप चन्द जैन ने अशुद्धिरहित श्लोकों से युक्त इस पुस्तक को प्रकाशित कर धार्मिकजनों और धार्मिक अनुष्ठानों में सहयोग प्रदान किया है।

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