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Manusmriti Set Of 2 Vols. (मनुस्मृति: 2 भागो में)

1,020.00

Author Pt. Sri Hargovind Shastri
Publisher Chowkhamba Sanskrit Series Office
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2019
ISBN 81-218-0221-0
Pages 1509
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0406
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Description

मनुस्मृति: 2 भागो में (Manusmriti Set Of 2 Vols.) अखिल हेय प्रत्यनीक कल्याणैकतान स्वेतर समस्त वस्तु-विलक्षण भगवान् श्री श्रीमन्नारायण के सङ्कल्पमात्र से जगत्पिता ब्रह्मा की उत्पत्ति के पश्चात् भगवान् वेद का अवतार हुआ। ब्रह्मा जी ने ही प्रकृत स्थावर-जङ्गमात्मक जगत् की सृष्टि प्रारम्भ की, जिसके कारण वे जगत्पिता की उपाधि से विभूषित हुए। सृष्टिक्रम में ब्रह्मा ने चौरासी लाख योनियों से युक्त एक विशाल संसार का निर्माण किया। मान्यतानुसार इन्हीं योनियों में नित्य आत्मा कर्तव्याकर्तव्यरूप फलाफल के कारण भटकती रहती है, जिससे मुक्ति हेतु जन्म-जन्मान्तर तक कठोर तपस्या करने के उपरान्त सवर्वोत्तम मानव योनि में प्रवेश कर अवाप्त पञ्चभूतात्मक शरीर के माध्यम से इस प्रपञ्चात्मक संसार से उसका विमुक्त होना सम्भव हो पाता है; परन्तु मानव शरीर प्राप्त कर संसार में आते ही सांसारिक चकाचौंध के वशीभूत होकर मनुष्य-शरीरधारी आत्मा अपने कर्तव्य से च्युत हो जाता है। जिस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु कठोर तप के द्वारा वह अमर आत्मा मानव शरीर अवाप्त करती है, वह उद्देश्य ही विस्मृत हो जाता है। परिणामतः जन्म से मृत्युपर्यन्त जीवात्मा को करुण-क्रन्दन करते हुए चौरासी लाख योनियों में पुनः भटकना पड़ता है। कर्म-चक्र के बन्धन में अनादि काल से भटकती जीवात्मा के दुःख से द्रवित होकर उसके उद्धार हेतु ऋषियों ने धर्मरूप कर्तव्यपथ को पारिभाषित करने के लिए वेद को अभिव्यक्त किया; किन्तु यतः उन वेदों के द्वारा सामान्य जन का लाभान्वित हो पाना सर्वथा असम्भव था; अतः मानवी सृष्टिकर्ता अन्तः करुणाप्रवण भगवान् मनु ने अपने वंशजों के उद्धार हेतु वैदिक ज्ञान को सरल रीति से निरूपित करते हुये जीवात्मा के योग्य कर्तव्याकर्त्तव्य कर्म का स्मृति (धर्म-शास्त्र) के रूप में वर्णन किया। वैदिक ज्ञान (श्रुति) का ही स्मरण किये जाने के कारण ही ऋषि-प्रणीत धर्मशास्त्र ‘स्मृति’ अभिधान से अभिहित हुये; जैसाकि मनुस्मृति में कहा भी गया है-
श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः ।

ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धमों हि निर्बभौ ।। (म० स्मृ०-२.१०)
धर्म का स्वरूप
धारणार्थक ‘धृ’ धातु से निष्पन्न ‘धर्म’ शब्द का अर्थ धारण करना, पालन करना तथा आलम्बन करना होता है। धर्म की परिभाषा समय तथा परिस्थितियों के अनुसार बराबर परिवर्तित होती रहती है। कभी धर्म का व्यापक अर्थ तथा कभी रूढ़ अर्थ, कभी संज्ञा के स्वरूप में तो कभी विशेषण के रूप में हमारे सामने उपस्थित होता है। महात्मा बुद्ध द्वारा प्रचलित बौद्ध धर्म रूढ़ होकर धर्मचक्र के रूप में आज भी अपनी पहचान बनाए हुए है। ऋग्वेद में १.२२.१८, ५.२६.६, ७.४३.२४ आदि स्थानों पर धर्म शब्द धार्मिक क्रिया-कलापों (संस्कारों) में प्रयुक्त हुआ है; किन्तु छान्दोग्य उपनिषदादि में धर्म शब्द का प्रयोग व्यापक सन्दर्भ में किया गया है। वहाँ पर इसका प्रयोग गृहस्थ, तापस तथा ब्रह्मचारी के धर्म-निर्देश करने हेतु किया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद् में विशेषतया विद्यार्थियों के लिए आचार धर्म के पालन का सङ्केत मिलता है- ‘सत्यं वद धर्म चर’ (तै० १.११)। इसी प्रकार भगवती गीता भी कहती है- ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधमों भयावहः’ (३.३५)। साथ ही गीता में ही आगे अट्ठारहवें अध्याय में ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ आदि के द्वारा कथित धर्म शब्द का ही आनुपूर्वी रूप धर्मशास्त्रों में वर्णित दिखाई देता है। मनुस्मृति का तो प्रारम्भ ही ‘धर्म’ शब्द से किया गया है।

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