Mool Ramayanam (मूलरामायणम्)
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Author | Dr. Acharya Dhurandhar Pandey |
Publisher | Bharatiya Vidya Sansthan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition, 2015 |
ISBN | 978-93-81189-41-2 |
Pages | 138 |
Cover | Paper Back |
Size | 12 x 2 x 19 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | BVS0098 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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मूलरामायणम् (Mool Ramayanam)
वेत्ति विश्वम्भरा भारं गिरीणां गरिमाश्रयम्।
ज्ञानदायिनी नगरी काशी की पावन धरती को सुशोभित करने वाले सकल विषपायी भूतभावन भगवान् शिवजी अपने आशुतोष नाम निश्चय ही सार्थक कर देने वाले हैं। अतएव उन्हीं के चरणों का सहारा ले उन्हीं का सर्वविध ध्यान धरने में निरत रहने वाला यह साधक निरन्तर ज्ञानार्जन की ओर अग्रेसर होने लगा। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार ज्ञान पाने के अभिलाषुक को भगवान् शिवजी की ही उपासना करनी चाहिए। फिर तो जो शिवजी की आराधना करेगा, उसके ऊपर ज्ञानदायिनी भगवती सरस्वती की अहैतुकी कृपा का होना स्वाभाविक ही है।
भगवती वीणावादिनी की कृपा पाकर यह सारस्वतसाधक अनेकविध झंझावातों के थपेड़ों एवं अनेकों विघ्न-बाधाओं के निरन्तर गतिशील रहने पर भी झरने की तरह प्रवाहमान ही रहा। फिर तो चलने वाला ही अमृतफल की प्राप्ति करता है। चलना ही तो जिन्दगी है तथा रुक जाना ही मौत की निशानी होती है। फिर तो इस नश्वर संसार में इस नश्वर शरीर से अनश्वर कार्य को सम्पन्न कर अक्षय कीर्ति हासिल कर लेना ही तो मानवजीवन की सच्ची सार्थकता तथा सफलता होती है। सतत चलने वाला ही मृगेन्द्रवत् अपने क्षेत्र में सर्वोच्च कीर्तिपताका फहरा सकता है तथा लोक में अपना आदर्श स्थापित कर सकता है। इस धराधाम की सर्वोच्च भाषा देवभाषा है, जो कि निरन्तर आदर्शों पर चलना सिखलाती है तथा यही वह भाषा है, जो कि योग की भी शिक्षा त्यागपूर्वक ही देती है ताकि मानव अपने स्वाभाविक त्रुटियों को दुहराने के बजाय उसमें निरन्तर सुधार करता रहे तथा समय के परिवर्तन को स्वीकार करते हुए निरन्तर अपने लक्ष्य की ओर आँखें खोल कर ही चलता रहे।
कभी भी किसी भी परिस्थिति में व्यक्ति को अपनी मर्यादा नहीं खोनी चाहिए तथा आत्मनिरीक्षण अवश्यमेव करते रहना चाहिए, क्योंकि कभी भी किसी को भी सब कुछ सुलभ नहीं होता। अभाव में भी भाव छिपा ही होता है। अतएव अभाव को भी भाव में बदलने का सार्थक प्रयास करते रहना चाहिए रहना चाहिए तथा अच्छे कार्य को सम्पन्न कर अपने जीवन एवं जीवनी को धन्य कर ही डालना चाहिए। य जैन स है। स चूंकि काँटों में ही गुलाब खिला करता है तथा कीचड़ में ही कमल खिला करता है। सिद्धान्तरूप में इस बात से तो प्रायः सभी परिचित ही होते हैं तवा इसे मान लेने की तो खूब वकालत किया करते हैं, किन्तु जब इन्हें व्यावहारिक धरातल पर लाने का स्तुत्य प्रयास करना पडता है तो शायद ही कोई सपूत इस धरती पर खरा उतर पाता है। खरा सोना ही बहुमूल्य होता है तथा सभी के लिए कण्ठहार बन पाने में समर्थ होता है। इस सारस्वत साधक को भी विभिन्न काँटों से परिपूर्ण जिन्दगी जीते हुए ही अपनी सारस्वत साधना की अग्नि को प्रज्वलित करनी पड़ी तथा वह प्रक्रिया आज भी गतिशील है। सम्भवतः विधाता की यही इच्छा है। विधाता की इच्छा के आगे किसी की भी कहाँ चलती है। कठिन साधना का फल तो मिलता ही है। फलस्वरूप इस सारस्वत साधक की लेखनी अबाधगति से चलती चली ही जा रही है तथा अबाध गति से अनेकों टीकाओं के प्रकाशित हो जाने के बाद महर्षि वाल्मीकि के द्वारा रचित मूलरामायण पर भी ‘सरस्वती’ टीका प्रकाशित हो रही है। प्रकृत टीका में प्रत्येक श्लोक के साथ साथ प्रसङ्ग, अन्वय, पदार्थ, संस्कृत व्याख्या, भावार्थ, भाषार्थ तथा टिप्पणी आदि विषयों का उल्लेख नितान्त सरल एवं सुबोध भाषा में किया गया है, जिससे कि सुकुमारमति जिज्ञासु विद्यार्थियों को उनकी इच्छानुसार उनके ज्ञानपिपासा की शान्ति हो सके तथा वे सहज ही अपने परीक्षार्णव को पार कर जायें। इस टीका से न केवल विद्यार्थियों को ही; अपितु उन समस्त जिज्ञासुओं को भी अवश्यमेव लाभ होगा, जो कि वाल्मीकि मुनि के द्वारा विरचित मूलरामायण से परिचित होना चाहते है तथा उन्हें इस टीका से इस मूलरामायण में निहित गुत्थियों को सुलझाने में निश्चय ही सहायता मिलेगी।
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