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Natya Shastra Of Bharat Muni (नाट्यशास्त्र प्रथम भाग दशमाध्यायान्तः)

382.00

Author Sudha Rastogi
Publisher Chaukhambha Sanskrit Series Office
Language Hindi & Sanskrit
Edition 2017
ISBN -
Pages 560
Cover Paper Back
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO00678
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Description

नाट्यशास्त्र प्रथम भाग दशमाध्यायान्तः (Natya Shastra Of Bharat Muni Vol. 1) भारतीय नाटकों के परिप्रेक्ष्य में “नाटधशास्त्र” तथा भरतमुनि ये दो ऐने नाम है जो कदाचित् गोता तथा व्यास की भाँति जनमानस में अक्षण्ण रूप से विराजमान है। परम्परागत प्रसिद्धि के अनुसार “नाट्यशास्त्र” की रचना भरत मुनि ने की थो। इतिहास में दशरथ-पुत्र भरत, दुष्यन्त पुत्र भरत, मान्धाता के परपोते रत एवं जड़ भरत का उल्लेख मिलता है। किन्तु इनमें से किसी को भी “नाट्यशास्त्र” का रचयिता नहीं माना जा सकता। “ऋग्वेद” में भी कई स्थलों पर “भरत” शब्द का प्रयोग एक जाति के रूप में होता रहा है। किन्तु “नाट्यशास्त्र” के सन्दर्भ में भरत नाम किसी ऐतिहासिक व्यक्ति का हो सूबक प्रतीत होता है। सम्पूर्ण “नाट्यशास्त्र” भरत नामक एक व्यक्ति की ही कृति है-इस धारणा को निविरोध मान्यता नहीं मिली है। भरत की एकता और बनेकता को लेकर दो धारणाएँ स्पष्टतौर पर मिलती है।

एकव्यक्तित्रादी पक्ष की पुष्टि में सबने प्रबल प्रमाण है कि अभिनवगुम, जो कि लोर्कापखून “अभिनवभारती” नामक टीका के यशस्वी प्रेणता हैं, के काल तक यह भावना व्याप्त हो चुकी थी कि “नाट्यशास्त्र” भरत-प्रणीत है। तभी तो अभिनत्र को तत्कालीन एक वर्ग में प्रचलित इस धारणा का खण्डन करने की आवश्यकता हुई कि “नाट्यशास्त्र” का प्रथम प्रणयन सदाशिव फिर ब्रह्मा और अन्त में भरत मुनि ने किया। उनके अनुसार, वस्तुतः सदाशिव, ब्रह्मा और भरत ने तीन स्वतन्त्र ग्रन्यों का निर्माण किया था। वर्तमान “नाट्यशास्त्र” तो मुख्यतः ब्रह्मा के मत को उपजीव्य मानकर अन्य मतों के निराकरणपूर्वक भरतपूर्व की सारी परम्परा का आकलन करता है- एतेन सदाशिवब्रह्मभरतमतत्रयविवेचनेन ब्रह्ममत-सारताप्रतिपादनाय मतत्रयीसारासारविवेचनं त‌द्मन्यखण्डप्रक्षेपेण विहितमिदं शास्त्रम्। (नाट्यशास्त्र, प्रथम गायकवाड संस्करण, भाग १ पृष्ठ ८) भावप्रकाश के अनुसार “नाट्यशास्त्र” की द्वादशसाहस्री संहिता की रचना आदि भरत ने की थी तथा भरतवृद्धेन कथितं गद्यमीदृशम्। (भावप्रकाश, पृ० ३६) इसी प्रकार काव्यमीमांसा में राजशेखर ने रूपकाधिकरण के कर्तृत्व का श्रेय भरत को दिया है। दूसरी ओर, भरत के अनेकत्व के पक्ष में ‘नाट्यशास्त्र’ के वे अंश सहायक सिद्ध होते हैं जहाँ भरत का प्रयोग अभिनेता, सूत्रधार, नट, विदूषक, आभरणकुद, मालाकार आदि नाट्य-प्रयोक्ताओं के लिए हुआ है।

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