Natya Shastram (नाट्यशास्त्रम् प्रथम द्वितीय अध्यायौ)
₹85.00
Author | Dr. Shree Krishna 'Jugnu' |
Publisher | Chaukhambha Sanskrit Series Office |
Language | Sanskti & Hindi |
Edition | 2022 |
ISBN | - |
Pages | 84 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0680 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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नाट्यशास्त्रम् (Natya Shastram) प्रस्तुति परक दृश्यकलाओं में नाटक प्रमुख है। नाटक प्रायः गृहीय, पथीय और मंचीय तीन रूप में अनेक सदियों से प्रचलित रहा है और इनके अनेक भेदोपभेद भी प्रचलन में रहे हैं। नाटकों की प्रस्तुतियों के लिए मण्डलियाँ अथवा संघ होते थे और वे गाँव-गाँव, नगर-नगर पौराणिक, ऐतिहासिक आदि नाटक प्रस्तुत करते थे, जैसा कि वाल्मीकीय रामायण में आया है-बहुनाटकसद्वैश्च संयुक्तां सर्वतः पुरीम्। नाट्यकला पूरी तरह तकनीक पर आधारित है- रचना से लेकर प्रस्तुति तक। नट-नटी अथवा पारिपार्श्विक सूत्रधार के साथ आपस में प्रयोजननिष्ठ वचनों द्वारा खेले जाने वाले नाटक के सम्बन्ध में जो वार्तालाप होता है, वह प्रस्तावना है और प्रायः नांदी से उपसंहार होता है, जैसा कि साहित्यदर्पण में आया है।इसी विषय पर वैदिक काल से लेकर परवर्तीकाल में जो अनुभवमूलक सूत्र ग्रन्थित हुए, उनके आधार पर भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र का प्रणयन किया जो छत्तीस अध्यायों में निबद्ध मिलता है और उसमें लगभग समस्त कलाओं-विज्ञानों का समावेश किया गया है। यह ईसापूर्व पांचवीं सदी से लेकर ईसा की द्वितीय सदी तक निरन्तर सम्पादित होता हुआ विवेचित हुआ है। माना जाता है कि कश्मीर इसकी रचनास्थली रहा है लेकिन इसमें देश-विदेश की अनेक नाट्य शैलियों और विषयों का समावेश हुआ है। इस पर आचार्य अभिनवगुप्त आदि के भाष्य और टीकाएँ मिलती हैं। ये सब इस महान् ग्रन्थ की लोकप्रियता को रेखांकित करते हैं।
यह ग्रन्थ नाट्य प्रशिक्षण संस्थानों से लेकर महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में संस्कृत पाठ्यक्रम का हिस्सा रहा है। यह शोधानुसन्धान में भी प्रमुख सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह सम्मान प्राप्त है। प्रस्तुत पुस्तक इस नाट्यशास्त्र के परिचय के साथ ही इस विधा की पृष्ठभूमि के ऐतिहासिक सिंहावलोकन को ध्येय में रखकर तैयार की गई है। यह उच्च शिक्षा के विद्यार्थियों के लिए अध्ययन और उपयोग को दृष्टिगत रखकर तैयार की गई है और नाट्यशास्त्र के प्रथम, द्वितीय एवं षष्ठ अध्याय सानुवाद और सटिप्पणियों के रखे गए हैं। इन सानुवाद अध्यायों के लिए मैं डॉ. सुधा रस्तोगी का ऋणि हूं। इसकी भूमिका में नाट्यकला की परम्परा को सोदाहरण दिया गया है और अन्त में परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर दिए गए हैं। मैं इस पुस्तक के प्रणयन और प्रेरणा के लिए चौखम्बा संस्कृत सीरीज कार्यालय, वाराणसी के प्रबन्धन का आभार स्वीकारता हूं, जिनकी प्रेरणा से विद्यार्थीहित में यह संस्करण तैयार किया गया है।
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