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Nyaya Darshanam (न्यायदर्शनम्)

300.00

Author Prof. Sachchidanand Mishra
Publisher The Bharatiya Vidya Prakashan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 1st edition, 2018
ISBN 978-81-935395-4-5
Pages 531
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 21 (l x w x h)
Weight
Item Code TBVP0051
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Description

न्यायदर्शनम् (Nyaya Darshanam) भारतवर्ष दार्शनिक ज्ञान का मूलभूत स्रोत है। दार्शनिक ज्ञान समस्त प्राणियों के उन्नयन और संस्कार सम्पादन का एकमात्र साधन है। यह दार्शनिक ज्ञान ही अज्ञानरूपी आन्तरतम का निरसन करता हुआ मानव के समस्त तापों को निवृत्त करता है जिसके फलस्वरूप मानव अनादिकाल से सञ्चित स‌ङ्कीर्णताओं और वेदनाओं से मुक्ति प्राप्त करता है। भारत का दार्शनिक ज्ञान सांख्य, योग, न्याय आदि अनेक आस्तिक और नास्तिक शाखाओं में विभक्त है। जिसमें अन्यतम न्यायदर्शन का स्थान सर्वोपरि है इसे आन्वीक्षिकी भी कहा जाता है। आन्वीक्षिकी शब्द का अर्थ है प्रत्यक्षदृष्ठ और शास्त्रश्रुत विषयों के तात्त्विक स्वरूप का प्रतिपादन करना। इसकी महत्ता को कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में वर्णित को है कि

‘प्रदीपः सर्वविद्यानामुपाय सर्वकर्मणाम्।
आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता।।’

यद्यपि अनेक शास्वकारों ने दुःखपङ्कनिमग्न जगत के उद्धार को कामना से स्वसिद्धान्तानुसार अनेकानेक शस्त्री का प्रणयन किया है परन्तु उनमें सर्वजनानुभव सिद्ध नित्य पदार्थों का ययावत विवेचन नहीं प्राप्त होता है इसलिए उनके द्वारा प्रदर्शित ज्ञान सभी के लिए सुकर नहीं है। परन्तु निःश्रेयसरू प परमप्रयोजन वाले महर्षि गौतम प्रणीत न्यायशास्त्र में समस्त जनानुभव सिद्ध नित्य पदार्थों का संमुचित विवेचन उपलब्ध होता है। इस न्यायशास्त्र के गुरु गम्भीर तथा परम महत्त्वपूर्ण होने के कारण महर्षि वात्स्यायन ने इस पर भाष्य का प्रणयन किया जोकि न्यायभाष्य तथा वात्स्यायन भाष्य इन संज्ञाओं से जाना जाता है।

इस महत्त्वपूर्ण भाष्य पर अनेक प्राचीन और नवीन विद्वानों की टीकाएँ उपलब्ध हैं। परन्तु अनेक व्याख्याओं के गुरु, गम्भीर और अनेक व्याख्याओं में अत्यन्त उथलापन होने के कारण भाष्य के भावार्य सुकर नहीं थे। कुछ व्याख्यायें अत्यन्त गम्भीर होने से केवल विद्वहृन्द के लिए ही बुद्धिगम्य होती थी तथा कुछ व्याख्यायें पाठकों को मात्र उलझाने में ही समर्थ होती थीं। पं० श्री सच्चिदानन्द मिश्र द्वारा लिखित ‘सुनन्दा’ नामक हिन्दी व्याख्या इसका अपवाद है। श्री मिश्र ने अपनी इस व्याख्या में भाष्योक्तविषयों का विस्तृत तथा सरल विवेचन किया है जिससे यह सामान्यजन के लिए भी परम उपयोगी सिद्ध होगी ऐसी आशा है। मैंने सम्पूर्ण व्याख्या का ध्यान पूर्वक अवलोकन किया है एवं श्री मिश्र को सफल व्याख्याकार तथा मूलग्रन्थ का मर्मज्ञ पाया है। इनकी इस व्याख्या की सरणि एवं भाषा नूतन रचना का आभास प्रदान करती है।

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