Panchatantra Apariksit Karakam (पञ्चतन्त्रम् अपरीक्षितकारकम्)
₹85.00
Author | Krishnamani Tripathi |
Publisher | Chaukhamba Surbharti Prakashan |
Language | Sanskrit Text and Hindi Translation |
Edition | 2022 |
ISBN | - |
Pages | 122 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSP0621 |
Other | Dispatched in 3 days |
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पञ्चतन्त्रम् अपरीक्षितकारकम् (Panchatantra Apariksit Karakam) भारत के इतिहास में यह तथ्य स्पष्टतया प्रसिद्ध है कि पञ्चतन्त्र के द्वारा अल्प काल में ही नीतिशास्त्र तथा वास्तविक व्यवहार का सारभूत ज्ञान सम्भव है। पञ्चतन्त्र की अतिसरल, रोचक एवं सदुपदेशप्रद कथाओं के आधार पर उसमें निहित नीतिवाक्यों का अभ्यास कर लेने पर कोई भी व्यक्ति अपने वैयक्तिक, पारिवारिक, आर्थिक एवं सामाजिक जीवन की समस्याओं को भली-भाँति सुलझा सकता है। इसमें स्थल-स्थल पर अनेक महत्त्वपूर्ण सूक्तियों का भी संग्रह है, जिनका समुचित अवसर पर प्रयोग कर लाभ उठाया जा सकता है। इस प्रकार यह ग्रन्थ एक समु ज्ज्वल प्रकाशमान मणि के समान सबका मार्ग-प्रदर्शन करने में सर्वदा समर्थ है।
पञ्चतन्त्र न केवल भारतवर्ष में ही, अपितु समस्त विश्व-साहित्य में एक कथा-साहित्य के रूप में मान्य है। इसकी सरलता, लोकप्रियता एवं उपयोगिता सर्वप्रसिद्ध है। इसमें लेखक ने मुख्य रूप से विचारपूर्वक कार्य करने की नीति पर बल दिया है। पञ्चतन्त्र के अनुशीलन से नीतिशास्त्र-विषयक ज्ञान आसानी से हो जाता है, क्योंकि इसके निर्माण का एकमात्र उद्देश्य ही सुकुमारमति राजकुमारों को कथा के ब्याज से विनोदपूर्वक राजनीति का ज्ञान कराना है। नीतिज्ञान के अतिरिक्त पञ्चतन्त्र के अध्ययन का एक लाभ और भी है- आरम्भिक सरल संस्कृत पढ़ने एवं लिखने के लिये यह एक आदर्श और स्पृहणीय ग्रन्थ माना गया है। इसीलिये सरलता से संस्कृत भाषा का ज्ञान कराने के निमित्त प्रायः सभी शिक्षण-संस्थाओं की पाठ्य-पुस्तक के रूप में यह स्वीकृत है और प्रेमपूर्वक विद्यालयों में पढ़ाया भी जाता है।
पञ्चतन्त्र का वर्गीकरण
पञ्चतन्त्र अन्वर्थनामा पाँच तन्त्रों (प्रकरणों) में विभक्त है- 1. मित्रभेद, 2. मित्रसम्प्राप्ति, 3. काकोलूकीय, 4. लब्धप्रणाश और 5. अपरीक्षितकारक। इन पाँचों तन्त्रों के नाम अन्वर्थ हैं। इनके वर्ण्य-विषयों का आभास इनके नामों से ही व्यक्त हो जाता है। इनको हृदयङ्गम कर लेने से मनुष्य किसी व्यावहारिक या नैतिक विचारों से वंचित नहीं रहता। इसकी विषय-सामग्री का प्रसङ्ग ऐसे सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि उनकी अवगति के निमित्त उत्तरोत्तर रुचि बढ़ती ही जाती है। इसकी रोचकता, मधुरता एवं सरलता सर्वप्रसिद्ध है।
अपरीक्षितकारक
इस प्रकार अपरीक्षितकारक पञ्चतन्त्र का अन्तिम भाग (पाँचवाँ तन्त्र) है, जिसमें मुख्यतया विचारपूर्वक सुपरीक्षित कार्य करने की नीति पर ग्रन्थकार ने बल दिया है। इसके नामकरण के कारण का स्पष्टीकरण करते हुये बतलाया गया है कि बिना भली-भाँति विचार किये एवं विना अच्छी तरह से देखे-सुने गये किसी कार्य को करने वाले व्यक्ति को कार्य में सफलता नहीं प्राप्त होती, बल्कि जीवन में अनेक कठिनाइयों का अनुभव करना पड़ता है। अतः अन्धानुकरण करने का फल समुचित नहीं होता।
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