Puran Vimarsh (पुराण विमर्श)
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Author | Aachary Baldev Upadhyay |
Publisher | Chaukhamba Vidya Bhawan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2023 |
ISBN | - |
Pages | 676 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CH0003 |
Other | Dispatched In 1 - 3 Days |
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पुराण विमर्श (Puran Vimarsh) आज मुझे ‘पुराण विमर्श’ नामक यह नवीन ग्रन्थ वैदिक धर्म तथा साहित्य के तत्त्व-जिज्ञासुओं के सामने प्रस्तुत करते समय अपार हर्ष हो रहा है। इसमें पुराण के विषय में उत्पन्न होनेवाली नाना जिज्ञासाओं तथा समस्याओं का समाधान पौराणिक अनुशीलन के आधार पर उपस्थित करने का लघुप्रयत्न किया गया है। पुराण के विषय में इधर प्रकाशित ग्रन्थों से इसका वैलक्षण्य साधारण पाठक को भी प्रतीत हो सकता है।
आजकल ऐतिहासिक पद्धति से पुराण के विश्लेषण की प्रथा इतनी जागरूक है कि उससे पुराण एक जीवित शास्त्र न रहकर अजायबघर में रखने की एक चीज बन जाता है। उसके अंग-प्रत्यंग का इतना निर्मम विश्लेषण आज किया जा रहा है कि उसके मूल में कोई तत्त्व ही अवशिष्ट नहीं रह जाता। वर्तमान अध्ययन की दिशा इस ओर एकान्ततः नहीं है। लेखक के एक हाथ में श्रद्धा है, तो दूसरे हाथ में तर्क। वह श्रद्धाविहीन तर्क का न तो आग्रही है और न तर्कविरहित श्रद्धा का पक्षपाती। इन दोनों के मञ्जुल समन्वय के प्रयोग से ही पुराण का यथार्थ अनुशीलन किया जा सकता है।
ध्यान देने की बात है कि पुराण के तथ्यों में आपाततः यथार्थता आभासित न होने पर भी उनके मूल में (अन्तरंग में) यथार्थता विराजती है। परन्तु इसके लिए चाहिये उनके प्रति सहानुभूति, बहिरंग को हटाकर अन्तरंग को पहचानने का प्रयास। पुराणों की दृष्टि में इस कलियुग में शूद्र का ही माहात्म्य है। परन्तु आज भी जब चातुर्वर्ण्य का प्रासाद खड़ा ही है, तब इस मौलिक तथ्य का तात्पर्य क्या है ? इस कथन का अर्थ यह नहीं है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य का सर्वथा लोप हो जाएगा और एकमात्र शूद्र वर्णं ही अवशिष्ट रह जाएगा। इसका तात्पर्य गम्भीर है। शूद्र का धर्म है सेवा। फलतः कलि में सब लोग सेवक ही हो जाएँगे। कोई भी स्वामी या प्रभु नहीं रह जाएगा। इस कथन का यही अर्थ है, जो आज की सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था में यथार्थ उतरता है।
आज की दुनिया में कोई स्वामी नहीं है, सभी सेवक या दास हैं। संसार से ‘राजा’ का सर्वथा लोप ही हो गया है। जहाँ वह बच्चा भी है, वहाँ वह अपने को प्रजा का सेवक मानता ही नहीं, प्रत्युत वह सेवक है भी। किसी व्यावसायिक प्रतिष्ठान का करोड़पति मालिक भी आर्थिक कठिनाइयों को दूर हटाने के लिए उसका मालिक नहीं होता, प्रत्युत वह नियमतः तनख्वाह लेकर उसका सेवक होता है। किसी स्वतन्त्र देश का प्रधान मन्त्री (जिसका पद निश्वयरूपेण सर्वापेक्षया समुन्नत है) जनता का ‘प्रथम सेवक’ मानने में गौरव का बोध करता है और वस्तुतः उस जनता का सेवक ही है, जो इस लोकतान्त्रिक युग में दो दिनों में विरुद्ध मत देकर उसे आधिपत्य से हटाने की शक्ति रखती है। संसार के इस वातावरण में शूद्र की सार्वभौम स्थिति नहीं है, तो किसकी है? फलतः कलियुग में शूद्र की धन्यता तथा महत्ता का पौराणिक कथन सर्वथा सत्य है तथा गम्भीरतापूर्वक सत्य है।
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