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Raghuvansh Mahakavyam Dwitiya Sarg (रघुवंशमहाकाव्यम् द्वितीय सर्गः)

50.00

Author Acharya Narmdeshwar Kumar Tripathi
Publisher Bharatiya Vidya Sansthan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 1st edition
ISBN -
Pages 88
Cover Paper Back
Size 12 x 1 x 18 (l x w x h)
Weight
Item Code BVS0191
Other -

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Description

रघुवंशमहाकाव्यम् द्वितीय सर्गः (Raghuvansh Mahakavyam Dwitiya Sarg)

द्वितीय सर्ग का कथासार

महाराज दिलीप अपने अनपत्यता कारण को जानकार महर्षि वशिष्ठ के बताये नियमों के अनुसार कामधेनु की पुत्री नन्दिनी की सेवा में सपत्नीक तत्पर हुए। रानी सुदक्षिणा ने गाय की पूजा चन्दन-मालादि से करके गाय को जङ्गल के पास तक छोड़ा। दिलीप अपने सेवकों को भी रानी के लौटने के बाद लौटाकर गाय के पीछे-पीछे जंगल में प्रविष्ट हुए। उसके चलने पर चलते थे, रुकने पर रुकते थे, बैठने पर बैठते थे और जल पीने पर जल पीते थे। इस प्रकार गाय की सेवा में तत्पर राजा दिलीप के इक्कीस दिन व्यतीत हो गये।

बाइसवें दिन राजा दिलीप जब स्वेच्छाचारिणी नन्दिनी के पीछे-पीछे चलते हुए हिमालय-कन्दरा की शोभा देखने में तत्पर हो गये, एक सिंह ने नन्दिनी पर आक्रमण कर दिया। नन्दिनी को सिंहाक्रान्त देख राजा दिलीप बाण निकालने के लिए अपना दाहिना हाथ तरकस के मुख पर ले गये। परन्तु उनका हाथ तरकस में ही सट गया। इससे दिलीप विस्मित हुए। तब उन्हें अत्यधिक विस्मित करते हुए सिंह ने हँस कर कहा-हे राजन् ! ये जो देवदारु के वृक्ष देख रहे हो, इसे स्वयं भवानी ने अपने हाथों से सींचकर बड़ा किया है। अतः शिव-पार्वती का इन पर पुत्रवत् स्नेह है। किसी समय एक जंगली हाथी अपनी खुजलाहट को मिटाने के लिए इस वृक्ष को रगड़ते हुए इसकी त्वचा छील दी। जिसे देख भवानी को बहुत कष्ट हुआ।

तभी से मैं निकुम्भ नामक प्रमथ-विशेष का मित्र कुम्भोदर नामक सिंह भगवान शंकर के द्वारा इनकी रक्षा में नियुक्त किया गया हूँ। भगवान् शिव का यह आदेश है कि यहाँ जो भी प्राणी आवें उनसे तुम अपनी बुभुक्षा शान्त करना अतः हे राजन् ! तुम मुझे मारने में सफल नहीं हो सकते। तुम लज्जा को छोड़कर वापस चले जाओ। सिंह की बात सुन राजा दिलीप ने नन्दिनी को छोड़ देने के लिए बहुत प्रार्थना की, परन्तु सिंह ने उसे न छोड़ने का ही निर्णय लिया और उसके बदले बहुत सी गायों को महर्षि वशिष्ठ को दानकर उसको खुश करने के लिए सुझाव राजा दिलीप को दिया। परन्तु राजा दिलीप ने भी नन्दिनी के बदले अपने शरीर को खाकर बुभुक्षा शान्त करने की प्रार्थना सिंह से की। किसी तरह तर्को से पराजित वह सिंह इस प्रार्थना को स्वीकार किया। जब राजा ने अपने शरीर को उसके सामने खाने के लिए झुकाया तब उनका हाथ तरकस से मुक्त हो गया, सिंह अदृश्य हो गया।

अनन्तर राजा दिलीप नन्दिनी की प्रेमपूर्ण वाणी को सुनकर उठे। नन्दिनी को अपने ऊपर उन्होंने प्रसन्न देखा। नन्दिनी बोली- ‘हे पुत्र ! मैंने तुम्हारी परीक्षा ली थी। तुम वरदान माँगों”। दिलीप ने पुत्रप्राप्ति का वर माँगा। अनन्तर राजा दिलीप नन्दिनी के पीछे-पीछे आश्रम लौटे और महर्षि से उक्त बातों को कहकर पत्नी से भी बताया। महर्षि की आज्ञा से राजा आयोध्या लौटे। कालक्रम से नन्दिनी की कृपा से रानी सुदक्षिणा गर्भवती हुई।

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