Rasgangadhar Set of 3 Vols. (रसगङ्गाधर 3 भागो में)
₹1,339.00
Author | Dr. Shree Narayan Mishra |
Publisher | Chaukhambha Krishnadas Academy |
Language | Hindi & Sanskrit |
Edition | 2022 |
ISBN | 978-81-218-0100-7 |
Pages | 377 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0641 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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रसगङ्गाधर 3 भागो में (Rasgangadhar Set of 3 Vols.) सहृदय-हृदयविजेता, श्लाध्यः सर्वेः कविर्मान्यः । तत्कर्मममं वीक्षक-साहित्यज्ञस्ततोऽपि बन्योऽस्ति ।कवि क्रान्तदर्शी (बार-पार देखने वाला) होता है। उसका हृदय विशाल, दृष्टि सूक्ष्म, मति जागरूक, मन प्रमन और वाणी सुललित होती है। वह अदृश्य जगत् में प्रवेश करने की क्षमता रखता है और दृश्य जगत् में भी जहाँ सामान्य लोग देखते हुए भी जिसे न देख पाते हों या देखकर भी व्यक्त न कर पाते हों, उसे वह देख और व्यक्त कर लोगों को चमत्कृत कर देता है। ललित वाणी में ललित भाव को उपस्थित कर देना हो तो कवि का काम है। इसी वाणी और भाव (अर्थ) के सन्तुलित सहभाव को साहित्य कहते हैं-
साहित्यमनयोः शोभाशालितां प्रति काप्यसौ । अन्यूनानतिरिक्तत्वं मनोहारिण्यवस्थितिः ॥इस प्रकार भावार्थक व्यव्-प्रत्ययान्त साहित्य शब्द धर्मबोधक (भावार्थक) होने से शब्दार्थस्वरूप काव्य का (धर्मी का) बोधक न होकर तत्प्रतिपादक शास्त्र का बोषक बन जाता है- हितेन सह सहितं, तस्य भावः साहित्यम्। परन्तु आचार्य कविशेखर बदरीनाथ झाजी का मत है कि यहाँ स्वाचिक प्रत्यय ही माना जाय। तदनुसार ‘सहितमेव साहित्यम्’ सहभावापन्न (शब्द और अयं के सन्तुलित रूप ) काव्य एवं उसके उपकारक छन्द, गुण, अलंकार, रीति, रस, भाव आदि के निरूपक ग्रन्य साहित्य कहलाने लगते है। यथा- ‘सुखमेव सौख्यम्, चरित्रमेव चारित्र्यम्, चतुवंर्णमेव चातुर्वण्यंम्’ प्रयोग प्रसिद्ध है, उसी तरह ‘सहितमेव साहित्यम्’ यहाँ स्वार्थिक प्रत्यय मानने पर धर्मी काव्य नौर उसके धर्म काव्यशास्त्र इन दोनों का बोधक साहित्य हो जाता है-साहित्यं सहितानां भावः काव्यैतदङ्गानाम् । साहितानि तानि वा तत्, सप्तममाख्यायते शास्त्रम् ।।
साहित्य विद्या को ही आचार्य राजशेखर ने अपनी काव्यमीमांसा में पञ्चम बेद, सप्तम दर्शन और पञ्चदश विद्यास्थान कहा है। काव्य और काव्यशास्त्र में अंगांगिभाव सम्बन्ध है, जिनमें काव्य है अङ्गी (प्रधान), साध्य और लक्ष्य तथा काव्यशास्त्र है अङ्ग (काव्य का उपकारक), सापन और लक्षण। इन दोनों लक्ष्य और लक्षणों के समुदाय को ही साहित्य कहना उचित है। जैसा कि आचार्य पतंजलि ने महाभाष्य (प्रथमालिक) में “लक्ष्यलक्षणे व्याकरणम्” कहकर लक्षण (सूत्र) और लक्ष्य (प्रयोग, उदाहरण) के सम्मिलित रूप को ही व्याकरण कहा है, उसी तरह काव्यशास्त्रीय लक्षण एवं उनके उदाहरण (काव्य) साहित्य कहे जाते हैं। केवल काव्यशास्त्र के लिए साहित्य पद का प्रयोग लाक्षणिक है। साहित्यशब्दार्थ व्यापक है बऔर काव्यपदार्थ व्याप्य, यह स्पष्ट ही है। यह एक व्यापक नियम है कि अङ्गी के फल (प्रयोजन) से. ही अङ्ग का भी फल मिद्ध हो जात है। तदनुसार काव्य के फल से ही काव्यशास्त्र भी फलबाम् हो जाता है। इसलिए सभी काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में काव्य का हो फल दिखाया गया है, शास्त्र का नहीं।
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