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Rigved Ki Shankhyan Shakha (ऋग्वेद की शाङ्गायनशाखा)

520.00

Author Prof. Amal Dhari Singh
Publisher Bharatiya Vidya
Language Hindi
Edition 2022
ISBN 978-93-95392-04-4
Pages 88
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code TBVP0424
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Description

ऋग्वेद की शाङ्गायनशाखा (Rigved Ki Shankhyan Shakha) विश्ववारा सनातन भारतीय संस्कृति के वेद प्राचीनतम प्रशस्ततम हीरकयन्च हैं। ऋषियों द्वारा साक्षात्कृत होने से सकल ज्ञान-विज्ञान के निधान स्वयं में प्रमाण, संस्कृति की प्रतिष्ठा सर्वस्व हैं। इन वेदों में ऋग्वेद प्रथम है, इसकी 21 शाखाओं में से एक शाखा ‘शाकलसंहिता’ का पूर्ण प्रथम प्रकाशन महारानी विक्टोरिया के संरक्षण में आक्सफोर्ड प्रेस इंगलैण्ड से प्रो. मैक्समूलर ने 6 भागों में 1849 से 73 तक 24 वर्षों में किया। अन्य 20 शाखाएँ उपलब्ध न होने से कालकवलित मान ली गई, पर आश्वलायन तथा शाङ्खायन इन दो शाखाओं की संहिता तथा पदपाठ की पृथक् पृथक् अष्टकक्रम में सुव्यवस्थित लगभग 12000 पृष्ठों की 38 + 25 = 63 पाण्डुलिपियाँ राजस्थान अलवर पैलेस लाइब्रेरी में सम्प्रति राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर में सुरक्षित हैं जिनको महाराजा सवाई विनयसिंहजू देव हैदराबाद तथा अहमदनगर से ले आए थे।

संस्कृति तथा संस्कृत जगत् के लिए यह अत्यन्त आह्लाद का विषय है।

सम्पूज्य श्रीगुरुदेवों के आशीर्वचन से वर्ष 1968 में मुझे इनके अवलोकन का सौभाग्य मिला। राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान के तत्कालीन निदेशक वेदमनीषी डॉ. फतहसिंहजी ने इनको जोधपुर मंगवाया और इनके प्रकाशन की योजना प्रकल्पित की जो उनके वर्ष 1970 में रिटायर हो जाने के कारण फलीभूत नहीं हो पाई, पर श्रद्धेय डॉ. सिंह जी के महान् संकल्प को मूर्तस्वरूप प्रदान करने के लिए मैं बराबर प्रयत्नशील रहा, विभिन्न पत्रिकाओं में दशाधिक निबन्धों का प्रकाशन कराया, विद्वत्संगोष्ठियों में विद्वानों का ध्यान इनकी ओर आकृष्ट किया। फलस्वरूप इनके उद्वारहेतु महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रिय वेद विद्या प्रतिष्ठान उज्जयिनी के तत्कालीन सचिव वेद मनीषी प्रो. ओम् प्रकाश पाण्डेय जी मई 2004 में मुझे काशी से उज्जैन ले आए, प्रतिष्ठान द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन तो हुआ, पर इन पाण्डुलिपियों का प्रकाशन न हो पाया। इसी प्रतिष्ठान के पूर्व यशोधनी कर्मव्रती सचिव प्रो. रूप किशोर शास्त्री जी ने प्रतिष्ठान के रजत जयन्ती वर्ष 2012-13 में पदपाठ संवलित शाङ्खायन संहिता का 4 भागों में प्रकाशन कराया। इस संहिता का यह प्रथम प्रकाशन है और इस तरह शाङ्खायन शाखा वैदिक वाङ्गय में समुद्धतम बन गई है। इस शाखा का ब्राह्मण, आरण्यक उपनिषद्, श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र सब कुछ पूर्वतः प्रकाशित था, पर इसकी संहिता ही प्रकाश में नहीं थी। अब इस शाखा की सम्पूर्ण परम्परा पूरी हो गई है। अभिनन्दनीय हैं, वेदोद्धारक प्रो. शास्त्रीजी।

ऐतरेय आरण्यक 4.1 में विद्यमान और शाकलसंहिता में अप्राप्त महानाम्नी ऋचाओं की स्थिति इस संहिता की विशिष्टता है। प्रस्तुत इस ऋजुग्रन्थ में ‘ऋग्वेद की शाङ्खायनशाखा : एक परिचय’ में समासरूप में इस शाखा का परिचय प्रदान किया जा रहा है, सुविस्तृत विवरण शीघ्र ही प्रकाश में आवेगा।

इस शाङ्ग्ङ्खायनशाखा की संहिता का प्रकाशन पूर्वसचिव वेदोद्धारक प्रो. रूप किशोर शास्त्री जी के प्रधान सम्पादकत्व में हुआ था और अब इस शाखा का परिचयात्मक विवरण प्रतिष्ठान के वर्तमान यशोधनी तदनुरूप दृढनिश्चयी कर्मव्रती सचिव प्रो. वी. विरूपाक्ष जड्डीपाल जी की प्रेरणा प्रोत्साहन तथा प्रदत्त आवश्यक संसाधनों के फलस्वरूप प्रकाश में आ रहा है और वेदों के संरक्षण एवं इनमें निहित विद्याओं के व्यापक प्रचार-प्रसार कर्म में जागरूक रूप से संलग्न इन्हीं के निर्देशन एवं संरक्षण में इस संहिता का हिन्दी में अनुवाद का कार्य प्रगति पर है।

प्रतिष्ठान के प्रमुख प्रयोजन वेद-निधि के रक्षण एवं प्रकाशन के प्रति महनीय योगदान प्रदान करने वाले अभिनन्दनीय सचिव त्रयी प्रो. पाण्डेय जी, प्रो. शास्त्री जी तथा प्रो. जड्डीपाल जी का सर्वतोभावेन अभिनन्दन है, विद्वन्मनीषियों के प्रति मैं बहुत-बहुत आभार आदरभाव प्रकाशित कर रहा हूँ जो मुझे क्रियाशील ऊर्जावान् बनाए हुए हैं, प्रतिष्ठान की सर्वविध समृद्धि में, वर्तमान भव्यस्वरूप प्रदान करने में इन्हीं महानुभावों का प्रशंसनीय योगदान है।

शाङ्खायनसंहिता की ही तरह इस ऋजुग्रन्थ के प्रकाशन में इस प्रतिष्ठान परिवार का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान है, सभी का श्लाघनीय सहयोग एवं प्रोत्साहन बराबर सहजरूप से मुझे सुलभ रहा है।

विद्यावैभवविभूषित शास्त्रीयपाण्डित्य अभिमण्डित प्रेरकव्यक्तित्व के धनी विविध योजनाओं के माध्यम से प्रतिष्ठान की सर्वविध प्रतिष्ठा के संवर्द्धन में सतत संलग्न तथा वेदभगवान् की पूजा में समर्पित मुझको बराबर प्रेरित करने वाले मृदुल स्वभाव प्रसन्नवदन माननीय प्रो. जड्डीपालजी के प्रति हार्दिक कृतज्ञताभाव ज्ञापित करता हूँ।इनके संरक्षण में प्रतिष्ठान का सङ्कल्पित कार्य सम्पूर्णता को प्राप्त करता जावे।

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