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Rigved Sanhita Set of 8 Vols. (ऋग्वेदसंहिता 8 भागो में)

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Author Jiyalal Kamboj
Publisher Vidyanidhi Prakashan, Delhi
Language Sanskrit Text With Hindi Translation
Edition 2006
ISBN 978-8186700439
Pages 7055
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code VN0027
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Description

ऋग्वेदसंहिता 8 भागो में (Rigved Sanhita Set of 8 Vols.) ऋग्वेद अध्यात्म, धर्म, संस्कृति, चिन्तन और जीवन पद्धति का प्राचीनतम और मूल स्रोत है। हमारी प्रतिज्ञा इसकी अध्यात्म अर्थात् उपासनापरक व्याख्या है। अतः सर्वप्रथम यह समझ लेना आवश्यक है, कि व्याख्या शब्द से क्या तात्पर्य है। व्याख्या शब्द वि और आ उपसर्ग पूर्वक ख्या प्रकथने धातु से सिद्ध होता है, जिसका अर्थ है ‘अलग-अलग करके अथवा खोलकर विस्तार से किया गया कथन’। अतः ऋग्वेद की व्याख्या का अर्थ हुआ ‘ऋग्वेद के मन्त्रों के अर्थ को खोलकर या विस्तार से कहना’। ऋग्वेद के मन्त्रों की व्याख्या प्रारम्भ करने से पूर्व यह भी आवश्यक है, कि ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बन्धित साहित्य, वेदार्थज्ञान में सहायक शास्त्रों, वेदव्याख्या की विभिन्न पद्धतियों तथा वेदव्याख्या और वेदव्याख्याकारों के इतिहास पर संक्षेप से प्रकाश डाल दिया जाए। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है, कि प्रकृत व्याख्या में अपनाए गए सिद्धान्तों का भी संक्षिप्त परिचय दे दिया जाए। इस भूमिका में यही प्रयास किया गया है।

वेद की परिभाषा: वेद शब्द विद ज्ञाने से सिद्ध होता है। अतः वेद का अर्थ है ‘ज्ञान’। वेद्यते ऽनेनेति वेदः ‘इससे सब-कुछ जाना जाता है, इस लिये इसे वेद कहते हैं। अथवा, वेदयति विश्वपदार्थान् अवगमयतीति वेदः ‘जो सब पदार्थों का ज्ञान कराता है, वह वेद है’। ऋक्प्रातिशाख्य की वर्गद्वयवृत्ति की प्रस्तावना में विष्णुशर्मा ने वेद की यह परिभाषा दी है: विद्यन्ते ज्ञायन्ते लभ्यन्ते वा एभिर् धर्मादिपुरुषार्था इति वेदाः। यहां वेद शब्द तीन विद धातुओं से सिद्ध किया गया है। एक विद ज्ञाने (१०६४) अदादिगण के धातु से, दूसरे विद सत्तायाम् (११७१) दिवादिगण के धातु से, और तीसरे विद्लृ लाभे (१४३२) तुदादिगण के धातु से। इस परिभाषा का अर्थ है : ‘चूंकि निश्चय से इनसे ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की विद्यमानता है, उनको जाना जाता है और उन्हें प्राप्त किया जाता है, इस लिये इनकी वेद संज्ञा है।’ इन परिभाषाओं के अनुसार वेद का यौगिक अथवा मूल अर्थ ‘ज्ञान’ है, परन्तु प्रायः वेद शब्द ज्ञान के आगारभूत ग्रन्थविशेषों के लिये ही प्रयुक्त होता है।

वेदों के महान् भाष्यकार सायणाचार्य के द्वारा तैत्तिरीयसंहिता के भाष्य की भूमिका में दी गई निम्नलिखित परिभाषा में कहा गया है: इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोर् अलौकिकम् उपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः ‘जो ग्रन्थ इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के परिहार के उपायों का ज्ञान कराता है, वह वेद है।’ यहीं पर सायण ने एक अन्य परिभाषा भी दी है, जिसमें कहा गया है कि प्रत्यक्ष अथवा अनुमान के द्वारा जिस उपाय को नहीं जाना जा सकता, उसे वेद के द्वारा जाना जाता है, इसी से वेद की वेदता है – प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस् तूपायो न बुध्यते। एतं विदन्ति वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता। इसका भाव यह है कि किसी पदार्थ या वस्तु को जानने के तीन उपाय हैं: प्रत्यक्ष, अनुमान और वेद। जिन वस्तुओं अथवा पदार्थों का ज्ञान प्रत्यक्ष और अनुमान का विषय नहीं है, उन्हें वेद में विहित ज्ञान के द्वारा जाना जाता है।

वेद के नाम: वेद को श्रुति, छन्दस्, मन्त्र आदि अनेक नामों से भी पुकारा जाता है।

श्रुति– ‘जिस के द्वारा सम्पूर्ण विद्याएं सुनी जाती हैं, और सुनकर ग्रहण की जाती हैं, उसे श्रुति कहते हैं।’ श्रूयन्ते सकला विद्या यया सा श्रुतिः। सृष्टि के प्रारम्भ में जब परमेश्वर ने मनुष्य को नैमित्तिक ज्ञान प्राप्त कराया, तब से लेकर यह ज्ञान गुरु-शिष्य परम्परा अथवा पितृ-पुत्र परम्परा से श्रवण के द्वारा अगली पीढ़ियों को प्राप्त होता रहा है और वर्तमान काल में हम तक पहुंचा है। इस लिये भी इसे श्रुति कहते हैं। लेखन कला के प्रारम्भ के साथ इसे लिखा भी गया, परन्तु इसे श्रवण-परम्परा से प्राप्त करके कण्ठस्थ करने और उपदेश के द्वारा अगली पीढ़ियों को थमा देने की प्रक्रिया को ही उत्तम और पवित्र समझा जाता रहा है।

वेद को छन्दस् भी कहा गया है। यास्क ने छन्दस् शब्द का निर्वचन करते हुए कहा है: छन्दांसि छादनात् (नि. ७.१२)। ‘आच्छादित करने अर्थात् ढांपकर रक्षा करने के कारण वेदों को छन्दस् कहा जाता है।’ शतपथब्राह्मण में कहा गया है: ‘चूंकि मृत्यु के भय से देवों ने अपने आप को इनके द्वारा आच्छादित किया, सुरक्षित किया, इस लिये वेदों को छन्दस् कहते हैं।’ यद् एभिर् आत्मानम् आच्छादयन् देवा मृत्योर् बिभ्यतः तच् छन्दसां छन्दस्त्वम् (शत.)। शब्दों के कुछ परिवर्तन के साथ यही बात छान्दोग्योपनिषद् (१.४.२) में कही गई है। छन्दस् शब्द को चदि आह्लादने दीप्तौ च धातु से भी असुन् प्रत्यय का विधान करके और च् को छादेश करके सिद्ध किया जाता है। अतः इसका अर्थ है ‘ज्ञान का प्रकाश देने और आनन्द की प्राप्ति कराने वाला’। छन्दस् शब्द प्रायः संहिता भाग के नाम के लिये प्रयुक्त हुआ है।

वेद के लिये मन्त्र शब्द का प्रयोग भी किया गया है। मन्त्र शब्द मत्रि गुप्तपरिभाषणे धातु से हलश् च (पा. ३.३.१२१) सूत्र से घञ् प्रत्यय लगकर सिद्ध होता है। इससे इसका अर्थ होगा ‘जिसमें गुप्त पदार्थों अथवा रहस्यों का वर्णन होता है, उसे मन्त्र या वेद कहते हैं।’ मन्त्र शब्द को मन ज्ञाने धातु से ष्ट्रन् प्रत्यय लगाकर भी सिद्ध किया जाता है। इसी लिये यास्क ने कहा है – मन्त्रो मननात् (नि.७.१२)। अतः ‘मन्त्र वह है, जिससे सब मनुष्यों के द्वारा सब ज्ञान जाने जाते हैं।’ विद और मन धातु पर्यायवाची होने के कारण उनसे सिद्ध होने वाले वेद और मन्त्र शब्द भी पर्यायवाची हैं।

वेद का एक अन्य नाम निगम भी है। निगम शब्द गम्लृ गतौ (९८२) धातु से पूर्व नि उपसर्ग लगाकर सिद्ध होता है। नितरां गमयति प्रापयति विज्ञापयति वा सर्वज्ञानानि स निगमः। ‘जो सब ज्ञानों को भली प्रकार प्राप्त करा देता है, या उनका ज्ञान करा देता है, वह वेद निगम है।

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