Sankalp Sagar (संकल्प सागर)
₹127.00
Author | Dr. Ramamilan Mishra |
Publisher | Shree Vedang Sansthan Prayagraj |
Language | Hindi & Sanskrit |
Edition | 1st Edition |
ISBN | 978-81-935160-8-9 |
Pages | 192 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | SVS0012 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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संकल्प सागर (Sankalp Sagar) सम्यक् कल्पना ही संकल्प है। किसी भी कार्य को करने से पहले उस कार्य के निमित्त मन में एक संकल्प उद्भूत होता है और उसी संकल्प बीज के स्वरूप उस कार्य की प्रवृत्ति देखी जाती है। सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी ने भी पहले मन में सृष्टि का संकल्प किया था, जिसके प्रभाव से आज यह समस्त सृष्टि दृष्टिगोचर रही है। विश्व की समस्त क्रियायें संकल्प मूलक होती हैं।
कर्मकाण्ड में संकल्प की पृथक् रूप रेखा देखी जाती है, जो कि मन में उत्पन्न संकल्प को साकार करने के लिये क्रियात्मक संकल्प किया जाता है। जिसमें कर्ता द्वारा पवित्रता से गणपति इत्यादि देवताओं का स्मरण करके दाहिने हाथ में जलाक्षत, कुश, द्रव्यादि अविनाशी पदार्थों को लेकर सृष्ट्यादि से काल गणना का उल्लेख करते हुए जहाँ कर्म किया जा रहा है उस स्थान तक का उल्लेख करते हुए अपने गोत्रादि वृत्त का उच्चारण पूर्वक स्वयं के नाम के सहित किये जाने वाले कर्म के उद्देश्य का स्मरण करते हुए संकल्प किया जाता है। जो कि शास्त्र विहित श्रेष्ठ कर्म है। बिना संकल्प के किसी भी श्रौत स्मार्त कर्म करने का पूर्ण फल नहीं प्राप्त होता है। जैसा कि भविष्यपुराण में कहा गया है-
संकल्पेन बिना कर्म यत्किञ्चित् कुरुते नरः।
फलम् चाप्यल्पकं तस्य धर्मस्यार्ध-क्षयोभवेत्।।
(भविष्य पुराण) अर्थात् मनुष्य जो कुछ भी धार्मिक कार्य बिना संकल्प किये हुए करता है उसका वह बहुत अल्प फल प्राप्त करता है। क्योंकि बिना संकल्प के किये हुए कर्म के आधे पुण्य का क्षय हो जाता है। इसीलिये मार्कण्डेय पुराण में कहा गया-अर्थात् स्नान, दान, व्रत इत्यादि में विधिवत् संकल्प करना चाहिए। क्योंकि- किसी काम को करने की इच्छा का मूल संकल्प ही है। इस कार्य से यह अभीष्ट फल सिद्ध किया जाता है। इस प्रकार की बुद्धि का होना ही संकल्प है। संकल्प मूलक ही यज्ञ हैं। संकल्प से ही यज्ञ होते हैं। व्रत, नियम, स्वरूप धर्म सब संकल्प से क्रियान्वित होते हैं।
संकल्प में मास, पक्ष, तिथि आदि का उच्चारण आवश्यक बताते हुए देवल ने कहा है कि-
मास-पक्ष-तिथीनाञ्च निमित्तानां च सर्वशः।
उल्लेखनमकुर्वाणो न तस्य फल भाग्भवेत् ।। (देवल)
अर्थात् यज्ञादि कर्मों में मास पक्ष तिथि एवं यज्ञ के उद्देश्य का उल्लेख न करता हुआ पुरुष यज्ञ के फल को प्राप्त नहीं करता है। इस संदर्भ में और भी कहा गया है-
प्रातरेव ही संकल्पे देशकालानुकीर्तनम् ।
ततोऽद्य पूर्वोक्त गुणैर्विशिष्टायां तिथाविति ।।
न्यूनाधिकेषु योगेषु पुनः कालादि कीर्तनम् ।
विदुषां सूक्ष्म दृष्टीनां याज्ञिकानामिदं मतम् ।।
यदि किञ्चिन्नजानन्ति देशं वा कालमेव वा।
तदा तिथिर्विष्णुरिति कर्मादौ संस्मरेद्बुधः।।
अर्थात् प्रातः काल में ही संकल्प में देशकाल इत्यादि का उच्चारण करना चाहिए उसके बाद किये जाने वाले संकल्प में हरिः ॐ अद्य पूर्वोच्चारितग्रह गुण विशिष्टायां पुण्यतिथौ – इतना ही मात्र कहने से संकल्प पूर्ण होता है। योगों के न्यून या अधिक होने पर अर्थात् द्वितीय संकल्प के समय यदि प्रातः किये गये संकल्प के तिथि योगादि का परिवर्तन हो गया हो तो पुनः पूर्ण देश कालादि का उच्चारण करना चाहिए। ऐसा याज्ञिक विद्वानों का मत है। यदि देश अथवा काल कुछ भी ज्ञात न हो तो ब्राह्मण तिथि कर्मादि में विष्णु का उच्चारण करें ऐसा कहा गया है।
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