Saryuparin Brahman Vanshavali (सरयूपारीण ब्राह्मण वंशावली)
₹50.00
Author | Shri Rajnarayan Shastri |
Publisher | Master Khiladilal Sanktha Prashad |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | - |
ISBN | - |
Pages | 88 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | SVP0002 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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सरयूपारीण ब्राह्मण वंशावली (Saryuparin Brahman Vanshavali) सरयूपारीण ब्राह्मण वंशावली का अभिनव संस्करण आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ। वास्तव में यह इतना बड़ा समाज है कि जिसके सम्बन्ध में कितना भी लिखा जाय परिपूर्ण नहीं कहा जा सकेगा। इसका गौरव तो इससे अधिक क्या होगा कि जिसकी शिष्यता मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्री रामचन्द्र ने भी परम श्रद्धा से ग्रहण की। यह सरयूपारीण-समाज कहीं से उठकर नहीं आया है, अन्नादिवर्ण-व्यवस्थाकाल से ही उक्त द्विजातियों की यह ऐतिहासिक पवित्र भूमि है। महर्षि वशिष्ठ, गौतम जैसे त्रिकालज्ञों से लेकर आजतक समाज में लोकख्यात महर्षि, सदाचारी, त्यागी, तपस्वी, जितेन्द्रिय, महाविद्वान् होते आ रहे हैं।
इस शताब्दी में ही मिश्रकुलोत्पन्न, पण्डितकुलसूर्य-भारतगौरव सर्व- तन्त्र-स्वतन्त्र-महामहोपाध्याय पं० शिवकुमारशास्त्रीजी महोदय को कौन नहीं जानता? युग के महर्षि सरयूपारीणकुलभूषण-भारत प्रथम राष्ट्रपति- पूजित-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-चरकावतार-वैद्यसम्राट् पं० सत्यनारायणशास्त्रीजी महानुभाव के समक्ष कौन नतमस्तक नहीं हुआ? सभी शास्त्रों के, वेदों के, भारतीय संस्कृति के एकमात्र नेतृत्व करनेवाले, भयङ्कर नास्तिकता के दुर्दान्त समय में भी धर्म तथा विश्वकल्याण का झण्डा उठानेवाले महाविद्वान् त्याग- तपोमूत्ति अनन्तश्रीविभूषित जगद्वन्द्य स्वामि श्रीकरपात्रीजी महाराज जैसे महापुरुष भी इस वंश के प्रदीप हैं। सर्वलक्षणलक्षित ब्राह्मणत्व, विश्वविदितवैदुष्य तो इस समाज का सनातन आदर्श है।
यह सरयूपारीण समाज किसी की शाखा-उपशाखा नहीं अपितु सर्वथा स्वतन्त्र है। कुछ ईष्यालु महाशयों ने इसके महत्त्व को घटाने की दृष्टि से यह प्रवाद उठाया कि यह कान्यकुब्जों की एक शाखा है। वस्तुतः ऐसी बात नहीं, यह सम्भव है कि कुछ कान्यकुब्ज आदि ब्राह्मण प्रतिष्ठा की आकाङ्क्षा से इस समाज में आकर मिल गये। वे मिले भी इस तरह कि अब उनका विभेदक नाममात्र का इतिहास नहीं मिलता। गर्ग, गौतम, शाण्डिल्य प्रभृति महर्षियों का मुख्य कुल यही है। स्थान की सङ्कीर्णता तथा वंशवृद्धि की परम्परा से कुछ लोगों ने अन्य स्थानों में जाकर अपना क्षेत्र बनाया। परिणामतः आज भी छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार, बंग देश आदि में सरयूपारीण समाज प्रचुर रूप से मिलता है। कई स्थानों पर तो ऐसा देखा गया है कि सरयूपारीण सरयूपारीण-ब्राह्मण-वंशावली ही अशिक्षावश दूसरों के बहकावे में आकर अपने को कान्यकुब्ज कहने लग गये हैं। स्थानीय साधारण रहन-सहन में अन्तर होते हुए भी मुख्य आचरण में वे अब भी सरयूपारीणता का अभिमान रखते हैं।
शास्त्रीय दृष्टि से यह वही देश है जहाँ के लिए ‘कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः। स ज्ञेयो यत्रियो देशः मन्वादि महर्षियों का ऐसा मत है। हमारे इस समाज का प्रधान केन्द्र विद्या एवं तपस्या के नाते वाराणसी क्षेत्र रहा है। आधुनिक परम्परा में भी हमारे वंशजों ने अपना आदर्श स्थान बनाया है। उदाहरणार्थ भारतीय-स्वतन्त्रता के वीर सेनानी, प्रसिद्ध साहित्यकार, उत्तम त्रिपाठिकुलप्रसूत, शीलसौजन्यमूर्ति माननीय पं० श्रीकमलापति त्रिपाठी केन्द्रीय रेलमन्त्री तथा श्रीमान् पं० कन्हैयालालजी मिश्र एडवोकेट जनरल महोदय, पं० श्रीसूरतनारायण मणि त्रिपाठी आइ. ए. एस. सदस्य विधान परिषद् लखनऊ, पं० श्री हरिश्चन्द्रपति त्रिपाठी विचारपति हाईकोर्ट इलाहाबाद, महोदय तथा पं० श्रीबलराम उपाध्याय भू०पू० न्यायाधीश हाईकोर्ट इलाहाबाद, भू०पू० कुलपति वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय का नाम उपस्थिन किया जाता है।
हमारे लिये यह साधारण गर्व की बात नहीं कि भगवान् राम जैसे यजमान का याजनसामर्थ्य, पाण्डित्य, पूज्यता आदि इसी सरयूपारीण समाज को उपलब्ध हुई। उस समय के अन्य ब्राह्मणों ने ईष्यांवश इस समाज के प्रति विविध उपद्रव किया, अन्ततः ज्ञान प्राप्त कर चुप हुये। कुछ उनके मानस पुत्र आज भी शेष हैं, जो कि ‘सरयूपारीणों ने रावणहन्ता राम को यज्ञ कराया’ अतः वे निकृष्ट हो गये इत्यादि कहकर अपना पेट भरते हैं, परन्तु सरयूपारीण समाज के विद्वान् ‘तुष्यतु दुर्जनः’ न्याय से इनकी बातों पर ध्यान नहीं देते। इस प्रकार की अशास्त्रीय तथा तर्कहीन बातों पर विज्ञ समाज स्वयं विचार करे कि निन्दकों की बातें कहाँ तक उचित हैं।
सरयूपारीण ब्राह्मण वंशावली के दो संस्करण मेरे पूज्य स्व० पिता पण्डितराज श्रीवेणीमाधवशास्त्रीजी के संग्रहानुसार प्रकाशित हुए थे। मैंनें उन्हीं के अनुसार तृतीय संस्करण प्रकाशित किया। परन्तु उन संस्करणों को लोगों ने इस तरह अपनाया कि आज फाइल के लिये भी मेरे पास तथा प्रकाशकों के पास कोई कापी शेष नहीं। प्रतिदिन लोगों की माँगें आ रही हैं। यद्यपि इसे बहुत बड़े रूप से संगृहीत कर निकालने की बात थी, तथापि इस पश्चम संस्करण को भी जिस त्वरा में निकाल रहा हूँ उसमें यह सम्भावना नहीं। अतः वह विचार तो अग्रिम संस्करण में ही पूर्ण हो सकेगा।
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