Shree Sadhna (श्री साधना)
₹59.50
Author | Gopinath Kaviraj |
Publisher | Vishvidyalaya Prakashan |
Language | Hindi |
Edition | 2017 |
ISBN | 978-93-5146-183-8 |
Pages | 128 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | VVP0125 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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श्री साधना (Shree Sadhna) श्रद्धेय महामहोपाध्याय डॉक्टर गोपीनाथ कविराज एक असाधारण व्यक्ति थे। वह अपने में ही एक विभूति और संस्था थे।२०वीं शती में हमारे देश में कुछ प्रसिद्ध साधक हुए हैं। कुछ प्रसिद्ध दार्शनिक भी हुए हैं, किन्तु साधना और दार्शनिक प्रतिभा का जो सुन्दर समन्वय श्रद्धेय कविराजजी में मिलता है वह कहीं अन्यत्र नहीं मिलता। लगता है १०वीं शताब्दी के अभिनव गुप्त श्री कविराजजी के रूप में पुनः इस धरातल पर २०वीं शताब्दी में प्रकट हुए। एक और विशेषता कविराजजी में पायी जाती है जो अभिनव गुप्त में भी नहीं थी। अभिनव गुप्त मूर्द्धन्यज्ञानी और तंत्र के अनुपम साधक थे, किन्तु श्रद्धेय कविराजजी में उत्कृष्ट ज्ञान के प्रकाश और तंत्र की रहस्यमयी साधना के अतिरिक्त जो प्रेम को निर्मल धारा का प्रवाह देखने को मिलता है वह अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं है। कविराजजी ने अपने जीवन में सैकड़ों लेख लिखे। उनमें से कुछ अब भी अप्रकाशित हैं।
विश्वविद्यालय प्रकाशन के उत्साही अधिष्ठाता श्री पुरुषोत्तमदास मोदी ने कविराजजों के कुछ अप्राप्य लेखों को एकत्र कर एक संग्रह के रूप में प्रकाशित किया है जिससे जिज्ञासु पाठकों का बहुत उपकार होगा। वह हमारे धन्यवाद के पात्र हैं।इस संग्रह में प्रकाशित प्रत्येक लेख एक अमूल्य रत्न है। दो उदाहरण पर्याप्त होंगे। ‘श्रीचक्र’ शीर्षक लेख में कविराज जी ने विश्वसृष्टि के विषय में, तंत्र की जो मार्मिक दृष्टि है, उसका बहुत हो मनोरम चित्रण किया है। इसका विस्तृत वर्णन तंत्र सद्भाव में मिलता है। तंत्र सद्भाव एक अद्भुत ग्रन्थ है। यह अभी तक अप्रकाशित है। कश्मीर के अपूर्व तंत्रसाधक स्वामी लक्ष्मणजू ने नेपाल से इसकी एक प्रति प्राप्त की है, किन्तु वह नेवारी लिपि में लिखी हुई है जिसका अभी तक नागरी लिपि में प्रकाशन नहीं हुआ है। क्षेमराज ने विश्वसृष्टि के विषय में अपनी शिव-सूत्र को व्याख्या में एक संक्षिप्त उद्धरण दिया है। उस संक्षिप्त उद्धरण के आधार पर कविराजजो ने अपने लेख में विश्वसृष्टि के विषय में जो विस्तृत वर्णन दिया है उससे पाठक चकित हो उठता है।
ऐसे ही ‘प्रेमसाधना’ शीर्षक लेख में कविराजजी ने कुछ तथ्य ऐसे दिये हैं जिनसे उनकी मौलिकता सिद्ध होती है। उनका कहना है कि यथार्थ प्रेमसाधना के लिए पहले भावसाधना आवश्यक है। भावसाधना है स्वभाव की साधना, इत्यादि।इस संग्रह का प्रत्येक लेख गाम्भीर्यपूर्ण है। कई बार पढ़ने पर ही वह समझ में आ सकता है किन्तु समझ में आने पर अज्ञानतिमिर का अपसारण हो जाता है। आशा है इस संग्रह से जिज्ञासु पाठक लाभान्वित होंगे।
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