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Shri Rudra Ashtadhyayi (श्री रुद्राष्टाध्यायी)

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Author Pt. Shri Shiv Datt Mishra
Publisher Jyotish Prakashan
Language Sanskri & Hindi
Edition 1st edistion, 2013
ISBN -
Pages 256
Cover Paper Back
Size 17 x 1 x 11 (l x w x h)
Weight
Item Code RTP0041
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Description

श्री रुद्राष्टाध्यायी (Shri Rudra Ashtadhyayi) सर्वप्रथम वैदिक-वाङ्गय में प्रवेश करने के लिए रुद्राष्टाध्यायी का प्रमुख स्थान है। प्रस्तुत ग्रन्थ अत्यन्त प्राचीन एवं आर्ष होने के कारण सर्वमान्य एवं अत्यधिक लोकोपकारी सिद्ध हुआ है। परन्तु इसके मूल संस्कर्ता का नाम अद्यावधि अज्ञात है। इसमें ब्रह्म के निर्गुण और सगुण, दोनों रूपों के वर्णन के साथ ही गृहस्थधर्म, राजधर्म, ज्ञान, वैराग्य, शान्ति तथा अनेक सर्वश्रेष्ठ विषयों का विशद वर्णन है।

यद्यपि रुद्राष्टाध्यायी के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं, फिर भी मूल मात्र होने से वे प मन्त्रों के अर्थानुसन्धान के लिए अनुपयुक्त हैं। जबकि, हमारे प्राचीन ग्रन्थों में वेद-मन्त्रों के अर्थानुसन्धानपूर्वक पठन-पाठन का अत्यधिक महत्त्व है। निरुक्तकार ने कहा भी है-

‘स्थाणुरयं भारवाहः किलाभूदधीत्य वैनं न विजानाति। योऽर्थं योऽर्थज्ञ इतः सकलं भद्रमश्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा ।।

अर्थात् जो व्यक्ति वेदाध्ययन कर, उसका अर्थ नहीं जानता, वह भारवाही (बोझ ढोने वाले) पशु के सदृश है। अथवा घनघोर जंगल के ऐसे सुमधुर रसाल वृक्ष के समान र्य है, जो न स्वयं उस रसामृत का आस्वादन कर सकता है, न किसी और को ही करा सकता है। वस्तुतः जो वेद-मन्त्रों को अर्थानुसन्धानपूर्वक अध्ययन करता है, उसी का वेदाध्ययन सार्थक एवं मंगलप्रद होता है। पाणिनीय शिक्षा में भी कण्ठस्थ के साथ अर्थज्ञ होने पर ही विशेष बल दिया गया है, और अनर्थज्ञ की निन्दा की गयी है।

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