Shri Vaman Puran (श्रीवामनपुराण)
₹200.00
Author | - |
Publisher | Gita Press, Gorakhapur |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 16th edition |
ISBN | - |
Pages | 477 |
Cover | Hard Cover |
Size | 19 x 3 x 27 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | GP0112 |
Other | Code - 1432 |
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CompareDescription
श्रीवामनपुराण (Shri Vaman Puran) भारतीय संस्कृतिके मूलाधाररूपयें वेदोंके अनन्तर पुराणोंका ही सम्मानपूर्ण स्थान है। वेदोंने वर्षिरत अगम रहस्योंतक जन-सामान्यकी पहुँच नहीं हो पाती, परंतु भक्तिरस-परिप्लुत पुराणोंकी मङ्गलमयी, शोकनिवारिणी, ज्ञानप्रदायिनी दिव्य कथाओंका अवण-मनन, पठन-पाठन कर जन-साधारण भी भक्तितत्त्वका अनुपम रहस्य सहज ही हृदयङ्गम कर लेते हैं। महाभारतमें कहा गया है- ‘पुराणसहिताः पुण्याः कया धर्मार्थसंजिताः। (आदिपर्व १।१६) अर्थात् पुराणोंकी पवित्र कथाएँ धर्म और अर्थको देनेवाली हैं। परमात्य-दर्शन अथवा शारीरिक एवं मानसिक आधि-व्याधिसे छुटकारा प्राप्त करनेके लिये अत्यन्त कल्याणकारी पुराणोंका बद्धापूर्वक पारायण करना चाहिये।
वामनपुराण मुख्यरूपसे भगवान् त्रिविक्रम विष्णुके दिव्य माहातयका आता है। इसमें कुरुक्षेत्र, कुरुजाङ्गल, पृयूदक आदि तीथोंका विस्तारसे विवेचन किया गया है। इस पुराणके अनुसार बलिका यज्ञ कुरुक्षेत्र में ही हुआ था। इसके आदिवन्ता महर्षि पुलस्त्य हैं और आदि प्रश्नकर्ता तथा श्रोता देवर्षि नारद हैं। नारदजीने व्यासको व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षणको और ताजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको इस पुराणकी कथा सुनायी थी। इसमें भगवान् कामन, नर- नारायण तथा भगवती दुगकि उत्तम बरित्रके साथ प्रह्लाद तथा श्रीदामा आदि भक्तोंके बड़े राज्य आख्यान हैं। मुख्यतः वैष्णवपुराण होते हुए भी इसमें मैव तथा सातादि वर्षोंकी श्रेष्ठता एवं ऐक्यभावको प्रतिष्ठा की गयी है।
इस पुराणके उपक्रममें देवर्षि नारदके द्वारा प्रश्न और उसके उत्तरके रूपमें पुलस्त्यजीका वामनावतारका कथन, शिवजीका लीला-रित्र, जीमूतवाहन-आख्यान, बह्याका मस्तक छेदन तथा कपालमोचन-आख्यानका वर्णन है। तदनन्तरदयविका कालरूप, कामदेव-दहन, अंधक वध, बलिका आख्यान, लक्ष्मी-चरित्र प्रेोपाख्यान आदिका विस्तारसे निरूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें प्रङ्गादका नर-नारायणले युद्ध, देवों, अमुकि भित्र-भित्र वाहनोंका वर्णन, वामनके विविध स्वरूपों तथा निवासस्थानका वर्णन, विभित्र कत, स्तोत्र और अन्तमें विष्णुभक्तिके उपदेशोंके साथ इस पुराणका उपसंहार हुआ है। विभित्र दृष्टियोंने लोककल्याणकारी इस पुराणका प्रकाशन ‘कल्याण’ वर्ष ५६, सन् १९८२ के विशेषरूप गीताप्रेसद्वारा किया गया था। पाठकों तथा विज्ञासुओंके द्वारा इसके पुनर्मुद्रणका बार-बार किया जा रहा था। तदनुसार गीताप्रेसके द्वारा इसका पुनर्मुद्रण ऑफसेटकी सुन्दर उपद्वारा मोटे टाइपोंमें किया गया है। आशा है, पाठकगण गीताप्रेससे प्रकाशित अन्य पुराणोंकी भाँति इस पुराणको भी अपनाकर इसकी उपयोगी सामग्रीसे लाभ उठायेंगे।
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