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Shrimad Bhagavad Gita (श्रीमद्भगवद्गीता)

676.00

Author Dr. Rajeshwar Shastri Musalgaowkar
Publisher Chaukhambha Sanskrit Sansthan
Language Hindi & Sasnkrit
Edition 2023
ISBN 978-93-81608-13-5
Pages 645
Cover Paper Back
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0648
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Description

श्रीमद्भगवद्गीता (Shrimad Bhagavad Gita) भगवद्रीता भारतीय दर्शनशास्त्रों के महत्त्वपूर्ण एवं सुसम्बद्ध विचारों का एक हृदयावर्जक समुच्चय है, या यों कहिये कि अखिल सृष्टि का सविता और मानवजाति को अहर्निश अशान्त करनेवाले तापत्रय का विनाशक, सच्चिदानन्द-योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा रण-भूमि में विषाद-ग्रस्त होकर विपन्नावस्था में पड़े हुए अर्जुन को संजीवनी के रूप में दिये गये सुसंगत अध्यात्मिक उपदेशों का समाहार है, जिसे महर्षि वेदव्यास ने एक ग्रन्थ के रूप में परिणत किया है, वह आज भारत के धर्म और नीतिशास्त्र के ग्रन्थों में सर्वातिशायी सर्वमान्य ग्रन्य है। भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निःसृत इस अमूल्य गीता की संस्कृत इतनी सुन्दर और सरल है कि अल्पप्रयास से ही साधारणजन इसे पढ़ सकता है, और सहज ही समझ सकता है, परन्तु भाव इतना गंभीर है कि आजीवन निरन्तर स्वाध्याय करते रहने पर भी उसका अन्त (भाव) नहीं पाया जा सकता है।

गीता के विषय में यह जो कहा जाता है कि- “गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः” केवल गीता का ही पूरा-पूरा अध्ययन कर लेना पर्याप्त है, शेष शास्त्रों का अध्ययन करने से क्या लाभ ? निश्चित ही यह एकान्तिक सत्य है। अतएव जिन लोगों को सनातनधर्म और नीतिशास्त्र के मूल तत्त्वों से परिचय कर लेना हो, वे सर्वप्रथम इस अपूर्व ग्रन्थ का मनोयोग पूर्वक अध्ययन करें, कारण यह है कि क्षर-अक्षर सृष्टि का और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ ज्ञान का विचार करनेवाले सांख्य, न्याय, मीमांसा, उपनिषद् और बेदान्त आदि प्राचीन महिमान्वित शास्त्र आविष्कृत होकर यथासंभव अपनी पूर्णावस्था प्राप्त कर चुकने पर, वैदिकधर्म को ज्ञानमूलक, भक्तिप्रधान एवं कर्मयोगप्रधान जो अन्तिमरूप प्राप्त हुआ तथा वर्तमानकाल में प्रचलित वैदिक धर्म का जो मूल है, वही गीता में प्रतिपादित होने के कारण, हम कह सकते हैं कि, संक्षेप में ही सही, किन्तु निस्सन्दिग्ध रीति से सनातन धर्म के तत्त्वों को समझा देनेवाला या वेदान्त के गहन तत्त्वज्ञान के आधार पर ‘कार्याकार्यव्यवस्थिति’ करनेवाला गीता के समतुल्य दूसरा ग्रन्थ ही संस्कृत वाङ्मय में नहीं है।

गीतारहस्यकार लोकमान्य पं. बालगङ्गाधर तिलक ने यथार्थ कहा है कि- “श्रीमद्भगवद्रीता” हमारे धर्मग्रन्थों का एक अत्यन्त तेजस्वी और निर्मल हीरा है। पिण्ड-ब्राह्मण्ड-ज्ञानसहित आत्मविद्या के गूढ और पवित्र तत्त्वों को थोड़े में और स्पष्ट रीति से समझा देनावाला, उन्हीं तत्त्वों के आधार पर मनुष्य मात्र के पुरुषार्थ की, अर्थात् आध्यात्मिक पूर्णावस्था की पहचान करा देनेवाला, भक्ति और ज्ञान का मेल कराके, इन दोनों का शास्त्रोक्त व्यवहार के साथ संयोग करादेनेवाला तथा इसके द्वारा संसार में त्रस्त मनुष्य को सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः। पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।। अर्थात् जितने उपनिषद् हैं, वे मानों गौएँ हैं, श्रीकृष्ण स्वयं दूध दुहनेवाले (ग्वाला) है, बुद्धिमान् अर्जुन भोक्ता बछडा (वत्स) है, और जो दूध दुहा गया है, वहीं मधुर गीतामृत है। तात्पर्य यह है कि उपनिषदों का सारतत्त्व ही गीता है। गाय के दूध के समान गीता का ज्ञान मंगलमय है। गाय दूध तभी देती है, जब बछडा सम्मुख उपस्थित हो, यहाँ पार्थ ही बछड़ा है। उसके व्याज से ही गीता का उपदेश हुआ है। अनुपम ज्ञान की वर्षा हुई। उसी गीतामृतरूप दूध के भोक्ता, यथार्थ ज्ञानप्राप्त करने के इच्छुक और उत्कृट अभिलाषी सुधोजन हैं।

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