Vasishtha Samhita Yog Kand (वसिष्ठ संहिता योगकाण्ड)
₹127.00
Author | Srimati Seema Sagar |
Publisher | Chaukhambha Orientalia |
Language | Sanskrit text with Hindi Translation |
Edition | 2019 |
ISBN | - |
Pages | 88 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CO0401 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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वसिष्ठ संहिता योगकाण्ड (Vasishtha Samhita Yog Kand) वसिष्ठ संहिता का ग्रथन ब्रह्मर्षिवसिष्ठ और विद्वान् साधक पुत्र शक्ति के संवाद के रूप में हुआ है। वसिष्ठ को यह ज्ञान चतुर्मुख ब्रह्मा से प्राप्त हुआ है ऐसा संकेत ग्रंथ में एकाधिक बार हुआ। स्मरणीय है परम्परा में महामुनि वसिष्ठ को ब्रह्मा का मानस पुत्र माना जाता है। इस ग्रंथ (वसिष्ठ संहिता के योग काण्ड) का विभाजन 6 पटलों में हुआ है प्रथम पटल में सामान्य भूमिका के अनन्तर दस यमों दस नियमों एवं दस आसनों का परिचय दिया गया है। द्वितीय पटल में नाड़ियों की कुल संख्या बहत्तर हजार मानते हुए चौदह मुख्य नाड़ी के स्थानों का और उनमें गतिशील प्राण आदि पांच प्रधान और नाग आदि पांच उप प्राणों का कार्य सहित परिचय निबद्ध है। तृतीय पटल में प्राणायाम की विधि और प्रत्याहार का परिचय देकर अठारह मर्म स्थानों का वर्णन हुआ है, चतुर्थ पटल का विषय धारणा पञ्चम का ध्यान और षष्ठ का विषय समाधि है।
ग्रंथ की भूमिका में महामुनि वसिष्ठ का परिचय देने के उद्देश्य से उनके लिए वाग्विदां श्रेष्ठं त्रिकालज्ञं अनुत्तमम् सर्वशास्त्रतत्वज्ञम् योगेषु परिनिष्ठितम् सर्वभूतहिते रतम् शान्तम् सत्यसन्धम् गतक्लमम् गुणज्ञम् परार्थैकप्रयोजनम् जितेन्द्रियम् जितक्रोधम् ब्रह्मज्ञम् ब्राह्मणप्रियम् तपोवनगतम् सौम्यम् सदाध्ययनतत्परम् ब्रह्मविद्भि ब्राह्मणैश्च सुसेवितम् नित्यं धर्मरतम् कृतपूर्वाहिकक्रमम् इन इक्कीस विशेषणों का प्रयोग किया है। इन विशेषणों से महामुनि वसिष्ठ की सर्वज्ञता तपोनिष्ठता उदारता कल्याणकारिता आदि आदि अतिविशिष्ट गुणों का बोध पाठक को सहज ही हो जाता है। ग्रंथ के प्रारम्भ में वसिष्ठ के पुत्र शक्ति उनके पास पहुंचते हैं और संसार को भयानकता का संकेत करके इससे मुक्ति का उपाय पूछते हैं। शक्ति का प्रश्न सुनकर वसिष्ठ सर्वप्रथम सबके हृदय में स्थित नारायण की स्तुति करके प्रणाम करते हैं और शक्ति को प्रेमपूर्वक देखकर उसके लिए तीन विशेषणों का प्रयोग करते है मुनिशार्दूल गुरुभक्त और जितेन्द्रिय। इसका तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि ग्रंथकार के अनुसार योगविद्या का उपदेश उसे ही करना चाहिए जिसमें कम से कम ये तीन गुण हों (1) मननशीलता (2) गुरु की भक्ति और (3) जितेन्द्रियता।
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