Vasvadatta (वासवदत्ता)
₹170.00
Author | Dr. Jamuna Pathak |
Publisher | Chaukhambha Krishnadas Academy |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2021 |
ISBN | 978-81-218-0205-9 |
Pages | 350 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0637 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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वासवदत्ता (Vasvadatta) प्राचीन गद्यकाव्यत्रयी में सुबन्धुकृत वासवदत्ता ही सबसे पूर्ववती है। यह अलंकृत गद्य-शैली में निबद्ध गद्यकाव्य का उत्कृष्ट निदर्शन है। सुबन्ध की दृष्टि में सत्काव्य वही है जिसमें अलङ्कारों का प्राचुर्य, श्लेष का माधुर्य और वक्रोक्ति का सन्निवेश विशेष रूप से रहता है-‘सुश्लेषवक्रघटनापटुसत्काव्यविरचनमिव’ । सुबन्धु ने अपने इस गद्यकाव्य को उत्कृष्ट बनाने के लिए इसमें श्लेष का प्रयोग पटुता से किया है। इन्होंने इसमें सभङ्ग और अभङ्ग दोनों प्रकार के श्लेषों का प्रयोग करके इस काव्य को विचित्रमार्ग का उत्कृष्ट उदाहरण बना दिया है।
इस ग्रन्थ में कन्दर्पकेतु और वासवदत्ता की प्रणयकथा वर्णित है, जिसकी घटना अत्यधिक संक्षिप्त है; किन्तु कवि की अप्रतिम प्रतिभा ने सुन्दर वर्णनों द्वारा इसे सजीव बना दिया है। वस्तुतः कवि ने इस ग्रन्थ में रोचक कहानी नहीं लिखी है, जिसके पात्र और घटनाएँ विस्मयोत्पादक है, प्रत्युत उनका उद्देश्यवर्णन कौशल प्रस्तुत करना है, जिससे साहित्यज्ञ आश्चर्यान्वित हो सकें। इस क्षेत्र में सुबन्धु को अत्यधिक सफलता भी प्राप्त हुई है। वासवदत्ता ऐसे गद्यकाव्य का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें कथानक अत्यधिक संक्षिप्त और वर्णनपटुता अधिक मात्रा में विद्यमान है।
सुबन्धु मीमांसा, न्याय, बौद्ध, जैन आदि अनेक दर्शनों तथा वेदपुराण, व्याकरण इत्यादि विद्याओं में पारङ्गत थे। इन्होंने रामायण, महाभारत और पुराणों की प्रसिद्ध तथा अप्रसिद्ध घटनाओं को अपने श्लेष और उपमा में स्थल-स्थल पर चित्रित किया है। यद्यपि इस ग्रन्थ में विरोध, उपमा, उत्प्रेक्षा इत्यादि अनेक अलङ्कारों का प्रयोग किया है फिर भी श्लेष के प्रति उनका विशेष झुकाव है और इस ग्रन्थ को ‘प्रत्यक्षरश्लेषमयप्रपञ्चविन्यासवैदग्ध्यनिधि’ बनाने की तो प्रतिज्ञा ही कर ली है।
वस्तुतः सुबन्धु का गद्य अक्षराडम्बर का साक्षात् रूप है, जहाँ केवल शाब्दीक्रीडा है। शब्दों का यह खेल क्रीडादर्शकों को तो आकृष्ट करता है किन्तु रसिकों के हृदय को भावविभोर करने में असमर्थ हो जाता है। जहाँ अपने श्लेषप्रेम को त्यागकर सुबन्धु ने काव्य प्रणयन किया है, वहाँ शैली रोचक और हृदयाकर्षक हो गयी है। ऐसे स्थल सहदयों का पर्याप्त मनोरञ्जन करते हैं, किन्तु वे अत्यल्प है। वक्रोक्तिमार्ग का प्रतिनिधि ग्रन्थ होने के कारण वासवदत्ता केवल काव्यपण्डितों की गोष्ठी का ही विषय बन कर रह गयी है।
ऐसे दुरुह ग्रन्थ पर लेखनी चलाना ‘प्रांशुलभ्ये फले मोहात्’ की कहावत चरितार्थ होती है, फिर भी मैने उसे स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। पदों से परिचय के लिए इस संस्करण में उनके अर्थ और श्लिष्टार्थ को पदार्थ तथा संस्कृतव्याख्या में स्पष्ट किया गया है। हिन्दी अनुवाद के साथ ही ग्रन्थ और ग्रन्थकार से सम्बन्धित तथ्यों को प्रकाशित करने वाली भूमिका दी गयी है। ग्रन्थ में प्रयुक्त रस और अलङ्कारों के विषय में परिशिष्ट में दिग्दर्शन करा दिया गया है।
इस संस्करण की पूर्णता में करुणासागर भगवान् राम की इच्छा ही प्रबल हेतु है, जिसके अभाव में इस सकल चराचर जगत् का कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता। इस परम्परा में श्रद्धेय गुरुवर्य प्रो० वीरेन्द्र कुमार, प्रो० श्री नारायण मिश्र और प्रो० कमला प्रसाद सिंह पूर्व-आचार्य, संस्कृतविभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के प्रति सादर नमन है। ग्रन्थ में जो वैशिष्ट्य है, वह गुरुकृपा की ही देन है और जो दोष है, वह मेरा है। इस व्याख्या में जिन आचार्यों तथा विद्वानों का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग प्राप्त हुआ है, उनके प्रति मैं सदा आभारी रहूँगा।
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