Vidwa Dwibhuti (विद्वद्विभूति)
₹25.00
Author | Acharya Shri Ram Chandra Jha |
Publisher | Chaukhambha Sanskrit Series Office |
Language | Hindi |
Edition | - |
ISBN | - |
Pages | 124 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0619 |
Other | Dispatched in 1-3 day |
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विद्वद्विभूति (Vidwa Dwibhuti) तर्काचित उपपत्तियों का प्रयोग वेद तथा उपनिषद् साहित्य में दृष्टिगोचर होता है किन्तु शास्त्र के रूप से न्याय का प्रवत्तन अक्षपाद ने किया। इस न्याय शास्त्र की पद्धति को बौद्धों ने अपनाकर अपने मतानुकूल विकास किया। आचार्य दिङ्नाग का बौद्ध-न्यायाचायों में बहुत ऊँचा स्थान है। इन्हीं का कालिदास ने मेघदूत में ‘स्थलहस्त’ तथा न्यायवात्तिक में उद्योतकर ने ‘कुतार्किक’ कह कर स्मरण किया है:-
यदक्षपादः प्रवरो मुनीनां शमाय शास्त्रं जगते जगाद। कुतार्किका ज्ञाननिवृत्तिहेतुः करिष्यते तस्य मया प्रबन्धः ।। ( न्यायवार्त्तिक, पृ० १, विब्लिोथिका इण्डिका सीरिज )
आचार्य दिङ्नाग का खण्डन भारद्वाजवंशीय उद्योतकर ने अपने ग्रन्थ – ‘म्यायवार्त्तिक’ में पर्याप्त रूप से किया। किन्तु उसके पश्चान् बौद्धन्याय की धारा अप्रतिहत गति से दो-तीन सौ बर्ष प्रवाहित हुई। अनेक बौदाचार्य हुये जिनके नाम तथा ग्रन्थों की तिब्बतीय साहित्य से पुनरुद्धार किया है।
इसका ऐतिहासिक कारण था। उत्तरकालीन गुप्तसम्राट् बौद्ध हो गये थे। उत्तरापथेश्वर शीलादित्य इर्ष भी बौद्धधर्म की ओर झुक गये थे। बङ्गदेश में ‘पास्तवंश’ और ‘चन्द्रवंश’ बौद्ध थे। तात्कालिक विश्वविद्यालय नालन्दा और विक्रमशिला बौद्धपरिचालित थे। बाह्यदेश सिंहल, चीन, यवद्वीप के मिनु और सम्राटों के सम्बन्ध से बौद्धमत अत्यधिक प्रभावशाली हो रहा था।
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