Nirnay Sindhu (निर्णय सिन्धुः)
₹780.00
Author | Shri Daulat Ram Gaud |
Publisher | Savitri Thakur Prakashan, Varanasi |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2022 |
ISBN | - |
Pages | 1344 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 6 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | RTP0136 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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निर्णय सिन्धुः (Nirnay Sindhu) ‘निर्णयसिन्धु’ कार श्री कमलाकर भट्ट को वैदुष्य कुलपरम्परया प्राप्त हुआ। काशी में त्रैपुरुषी-विद्या परम्परा वाले इने गिने घरानों में निर्णयसिन्धुकार का घराना शिरोमणि रूप में विख्यात था। इनके प्रपितामह श्रीरामेश्वर भट्ट दक्षिण भारत के प्रतिष्ठानपुर (पैंत्रण) नामक स्थान से पहले पहल काशी आये थे। इनके पुत्र श्रीनारायण भट्ट भारतीय इतिहास में स्मरणीय पुरुष हुए हैं। श्री नारायण भट्ट के समय की शताब्दी में भारत के उत्तर पश्चिम में राजनीतिक परिस्थिति बहुत ही खराब थी। हुमायूँ का और शेरशाह का राज्यकाल था। भारत में मुगलसत्ता का सूर्य आक्रमणकारियों की घनघोर विपद् घटाओं से घिरा रहता था। काशी और काशी से पूर्व मिथला और बंगाल में कभी-कभी आक्रमण होते थे फिर भी संस्कृत के विद्वान् निर्भीकता पूर्वक धर्मशास्त्रीय निबन्ध ग्रन्थों की रचना में तल्लीन थे। यहाँ के सामन्त एवं राजागण तथा प्रजा धार्मिक विद्वानों का समादर करते थे। इसी समय बंगाल की रत्नगर्भा वसुन्धरा ने गौड सम्प्रदाय के शिरोमणि विद्वान् एवं संस्कृत साहित्य में अपर व्यासावतार श्री रघुनन्दन भट्टाचार्य को उत्पन्न किया था। जिन्होंने ‘ स्मृतित्तत्त्व’ नामक महान् ग्रन्थ की रचना करके पौरस्त्य विद्वत्समुदाय स्मार्त भट्टाचार्य की उपाधि धारण की थी। इधर दाक्षिणात्य समुदाय ने तथा तत्कालीन शासकों ने नारायण भट्ट को ‘जगद्गुरु’ की उपाधि एवं अग्रपूजा प्रदान की थी।
यद्यपि इस काल तक दाक्षिणात्य और मैथिल तथा बंगीय विद्वानों ने बहुत से निबन्ध ग्रन्थों की रचना करके अम्बार लगा दिया था फिर भी स्मार्त्त भट्टाचार्य (रघुनंदन) की रचना (स्मृतितत्त्व) ने सबको चमत्कृत कर दिया था। श्री नारायण भट्ट जी भी सुलेखक थे। वे केवल स्मृति और पुराणों के वचन संग्राहक मात्र न थे अपितु अच्छे मीमांसक और कुशलकर्मठ (कर्मकाण्ड निपुण) भी थे। दिव्यतत्त्व के उपासक और हिन्दू समाज के नेता भी थे। उनमें भगवत् प्रर्दत्त चमत्कारी गुण थे। उन्होंने अपनी वृद्धावस्था में लगभग १२ वर्ष तक पड़ने वाले अनावृष्टिजन्य अकालको तपोबल से वृष्टि कराकर दूर किया और मुगल सम्राट् अकबर से विश्वनाथ मंदिर की पुनः स्थापना का आदेश प्राप्त किया। इनके सुपुत्र श्री रामकृष्ट भट्ट भी अच्छे विद्वान् एवं ग्रन्थ लेखक हुए। लेकिन इनके कुल का मुख उज्ज्वल अनन्य पितृभक्त तथा सकल शास्त्र पारदृश्वा श्री कमलाकर भट्ट से ही हुआ। श्रीकमलाकर भट्ट श्री रामकृष्ण भट्ट जी के आत्मज थे। ये लौकिक एवं वैदिक कर्मकाण्ड, ज्यौतिष, धर्मशास्त्र, न्याय, मीमांसा, व्याकरण, छन्द आदि के विशेष मर्मज्ञ थे। इनके काल तक अनेक धर्मशास्त्र-धुरन्धर विद्वान् हुए और उन्होंने अनेक बृहत् निबन्ध ग्रन्थों की रचना की थी लेकिन प्रायः सब ग्रन्थ क्षेत्रीय परम्पराओं में सिमटे हुए थे। कोई दाक्षिणात्य और कोई गौड तथा कोई मैथिल निबन्ध माना जाता था। अखिल भारतीय संस्कृति की सुरक्षा हेतु इदमित्थम्” यह बात ऐसी ही है’ या यह निर्णय आसेतु हिमाचल हिन्दू-मात्र को मान्य है ऐसा निर्णय करने वाला कोई एक धर्मशास्त्रीय निबन्ध ग्रन्थ नहीं था। संयोगवश, यह सौभाग्य श्री कमलाकर भट्ट को’ निर्णयसिन्धु’ की रचना से प्राप्त हुआ। यही इस ग्रन्थ का वैशिष्ट्य है। इस ग्रन्थ के वैदग्ध्य पर स्वयं ग्रन्थकार को भी गर्व है-
सन्ति यद्यपि विद्वांसः तन्निबन्धाश्च कोटिशः । तथाप्यमुष्य वैदग्धीं केचिद्विज्ञातुमीशते ।।
यद्यपि अनेक विद्वान् और करोड़ों निबन्ध ग्रन्थ हैं किन्तु, इस (निर्णयसिन्धु) का वैदग्ध्य (पाण्डित्य) तो कुछ लोग ही जान सकते हैं। निर्णयसिन्धुकार नीर-क्षीर विवेकी थे। उन्होंने तो’ नो संक्षिप्तं न च बहुवृथा विस्तरं शास्त्रतत्त्वम्’ वाली नीति अपनाकर इस ग्रन्थ को लिखा है। इन्होंने अपने अगाध पाण्डित्य सिन्धु के प्रतीक निर्णयसिन्धु में सुमेरु तुल्य हेमाद्रि माधव और प्रतिभा भास्कर रघुनन्दन भट्टाचार्य, तोडरानन्द पृथ्वीचन्द्रोदयादिकार को विलीन कर लिया। निर्णय सिन्धुकार की अप्रतिम लेखन शैली की चमत्कृति इस ग्रन्थ के ग्रहण निर्णय, जन्माष्टमी और नवरात्रादि व्रतनिर्णय तथा श्राद्धनिर्णय में देखने को मिलती है। इन्होंने समय की गति को पहचाना तथा व्यर्थ के वागाडम्बर एवं विवेक शून्य बातों की कटु आलोचना भी की है। जिसके प्रतीक इनका प्रमाण स्वरूप उपस्थित किये जाने वाले शास्त्र विरोधी रुद्रयामल और डामरतन्त्र के वचनों को निर्मूल कह देना तथा बालकों की शुद्धिविषयक प्रकरण तथा इस ग्रन्थ में म्लेच्छश्राद्ध विषयक वचनों का समाविष्ट करना है। संभव है कि इनके इन वचनों या परामर्श का ही प्रमाण था, जो तत्कालीन मुगल बादशाह जहाँगीर ने अपने पिता अकबर की वार्षिक श्राद्ध तिथियों पर निर्णयसिन्धु सम्मत-विधि से ब्राह्मणों को दान पुण्य देकर और कैदियों को छोड़कर ‘पितृकर्म’ विधि की सम्पन्नता मानी। निर्णयसिन्धुकार ने सबके मतों का खण्डन और अपने पितामह नारायण भट्ट के मत का मण्डन करके ‘काशी मध्ये दोउ पण्डित मैं व माझा भाऊ’ वाली उक्ति को चरितार्थ किया है। नारायण भट्ट जी ने भी अपने त्रिस्थलीसेतु में केवल दो स्थलों पर स्मृतिरत्नावली और एक स्थल पर हेमाद्रि का नाम उल्लेख किया है और सर्वत्र पुराण और संहिताओं का ही उदाहरण दिया है, उनको अपने जगद्गुरुत्त्व का स्वाभिमान था। श्री कमलाकर भट्ट ने उनसे एक कदम आगे बढ़कर निबन्ध ग्रन्थकारों एवं ग्रन्थों का नामोल्लेख कर उन्हें प्रामादिक, भ्रान्त, निर्मूल, परास्त, महोक्ष, मूर्ख, प्रलाप, हेय, बौद्धतुल्य आदि कहकर स्वमत प्रकट किया। भट्टवंश की देन श्रीरामेश्वर भट्ट से लेकर आगे कई पीढ़ी और सैकड़ों वर्षों तक ग्रन्थ लेखन-परम्परा को देखकर विद्वत्समुदाय ने उनका गर्वभार वहन किया है यह निःसंकोच स्वीकरणीय है। अस्तु।
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