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Shri Prabhu Vidya Pratistharnav Athartha Sarvadeva Pratistha Mayukha (श्रीप्रभु विद्या प्रतिष्ठार्णवः अर्थात् सर्वदेवप्रतिष्ठामयूखः)

382.00

Author Pt. Daulat Ram Gaud
Publisher Rupesh Thakur Prasad Prakashan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2010
ISBN 057-542-2392540
Pages 602
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code RTP0152
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Description

श्रीप्रभु विद्या प्रतिष्ठार्णवः अर्थात् सर्वदेवप्रतिष्ठामयूखः (Shri Prabhu Vidya Pratistharnav) हिन्दू जाति का प्राचीन धर्मग्रन्थ वेद ही है। वेदों में ही कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड इन तीनों विषयों का वर्णन आज भी प्राप्त होता है। वास्तविकता तो यही है- इन तीनों में मुख्य स्थान ‘कर्मकाण्ड’ को ही प्राप्त है। जैसे कि वेद अति दुरूह है, उसी प्रकार किसी भी देवी या देवता की वेदाङ्गभूत प्रतिष्ठा करवाना भी अत्यन्त दुरूह कर्म है। प्रतिष्ठा के विषय में यह भी कहा गया है- प्रतिष्ठानमेव प्रतिष्ठा भिदादित्वाद् अङ् यत्कर्मणा देवाः स्थित्वा स्वघटित-कर्मसाफल्यद्वारा यजमानस्य फलाय कल्पन्ते सा प्रतिष्ठा। इसी को ही प्रतिष्ठा कहते हैं।

जैसे कि वेद में नाना प्रकार के उपास्यदेव हैं, उसी प्रकार प्रतिष्ठा में भी अनेकानेक उपास्यदेव हैं। सनातनधर्म में तैंतीस कोटि देवी-देवताओं का समावेश है और इनमें से अधिकतर देवी-देवताओं के देवालय आज भी भारतवर्ष में प्राप्त होते हैं। इन देवालयों में जो भी मूर्ति स्थापित की गई है, वह साङ्गोपाङ्ग विधि से प्रतिष्ठित है। इस समय जो नवीन देवालय बन रहे हैं, उनमें भी जिन देवी-देवताओं की मूर्ति स्थापित की जाती है, उसकी भी प्रतिष्ठा सविधि होती है। क्योंकि बिना प्रतिष्ठा किये स्थापित देवता में देवत्व का भाव कदापि नहीं आ सकता। किसी भी देवी-देवता की प्रतिष्ठा करवाने के लिए उसकी पद्धति का होना अति आवश्यक है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मेरे स्व० पिताश्री पं० दौलतराम गौड वेदाचार्य ने आज से लगभग चालीस वर्ष पूर्व इस ‘श्रीप्रभु-विद्या-प्रतिष्ठार्णव’ नामक ग्रन्थ का निर्माण किया था।

प्रतिष्ठा विषय

१. मत्स्यपुराण के अनुसार – सूर्य, गणेश, दुर्गा, शिव और विष्णु को ही पञ्चदेव कहा गया है। इनकी प्रतिष्ठा करने से सभी कार्यों में सिद्धि होती है।

२. देवप्रतिष्ठा के लिए विहित मास – धर्मसिन्धु तृतीय परिच्छेद के अनुसार-वैशाख, ज्येष्ठ और फाल्गुन मास में सभी देवताओं की प्रतिष्ठा की जा सकती है। केवल माघ मास में विष्णु की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती, यदि कोई यजमान माघ मास में विष्णु की प्रतिष्ठा करवाता है, तो निःसन्देह उसका विनाश होता है। देवताओं की प्रतिष्ठा के लिए उत्तरायण सूर्य शुभ कहा गया है और दक्षिणायण सूर्य निन्दित कहा गया है। रत्नावली के अनुसार माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ इन पाँच मासों में तथा शुक्ल पक्ष में शिवलिंग की प्रतिष्ठा उत्तम कही गयी है।

३. देवी की प्रतिष्ठा का मुहूर्त – देवी पुराणों के अनुसार- किसी भी देवी की प्रतिष्ठा माघ मास में और आश्विन मास में उत्तम व समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाली होती है। देवी की प्रतिष्ठा में तिथिवार, नक्षत्र और उपवास आदि का विचार अनावश्यक है। इसलिए देवी की प्रतिष्ठा सभी समय में की जा सकती है, किन्तु विशेषरूप से कृष्णपक्ष में प्रतिष्ठा करवाना उत्तम होता है।

४. उम्र देवी-देवताओं की प्रतिष्ठा – नृसिंह पुराण के अनुसार- उग्र देवी-देवताओं की प्रतिष्ठा के लिये आश्विन मास उत्तम और समस्त कामनाओं को देनेवाला कहा गया है। देवी, भैरव, वाराह, नृसिंह, विष्णु और दुर्गा की प्रतिष्ठा दक्षिणायन सूर्य में भी की जा सकती है। मुक्ति की कामना के लिए दक्षिणायन सूर्य में शिव आदि देवताओं की प्रतिष्ठा हो सकती है।

५. अप्रतिष्ठित मूर्ति – जिस देवी या देवता की प्राणप्रतिष्ठा न की गयी हो, यदि ऐसी मूर्ति की जो लोग स्थापना करवा के पूजा करते हैं, उनके अन्न को देवता ग्रहण नहीं करते। इसलिए ऐसी मूर्ति का परित्याग कर देना चाहिए।

६. प्रतिष्ठा के दो प्रकार – किसी भी मूर्ति की प्रतिष्ठा चल और अचल दो प्रकार से की जा सकती है। अचल मूर्ति में तथा शालिग्राम में आवाहन व विसर्जन नहीं होता, किन्तुं चल मूर्ति में आवाहन और विसर्जन होता है। घर में चल प्रतिष्ठा तथा मंदिर *में अचल प्रतिष्ठा ही करवानी चाहिए।

७. प्रतिष्ठा के अधिकारी – देवीपुराण के अनुसार- शुभ की अभिलाषा चाहनेवाले चारो वर्णों के लोगों को विष्णु की प्रतिष्ठा | ही करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त चारों वर्णों को और शूद्रों को भैरव की स्थापना करनी चाहिए। समस्त लोकों में सभी देवताओं में श्रेष्ठ मातृकाओं का स्थापन और प्रतिष्ठापन व पूजन सभी वर्गों के लोगों को करना चाहिए।

८. मूर्ति के स्थापन में दिशा का निर्णय – देवतामूर्ति प्रकरण के अनुसार-देवताओं का मुख पूर्वदिशा व पश्चिमदिशा में उत्तम कहा गया है। दक्षिण दिशा और उत्तर दिशा में श्रेष्ठ नहीं कहा गया है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, इन्द्र, कार्तिकेय, का मुख, पूर्वदिशा और पश्चिमदिशा में करने का निर्देश आज भी प्रतिष्ठा के ग्रन्थों में प्राप्त होता है। इसी प्रकार शिव, ब्रह्मा, विष्णु इन देवताओं का मुख सभी दिशाओं में शुभ माना गया है। गणेश, भैरव, चण्डी इनका मुख दक्षिण दिशा में शुभ कहा गया है।

९. घर के लिए प्रतिमा का परिमाण – अंगुष्ठपर्व से बित्तापरिमाण की प्रतिमा घर में रखनी चाहिए। इससे अधिक परिमाण की प्रतिमा विद्वानों ने अप्रशस्त कही है। वैसे सात अंगुल से लेकर बारह अंगुल तक की प्रतिमा घरों में प्रशस्त कही गई है। मंदिर में इससे अधिक परिमाण की मूर्ति रखना शुभ कहा गया है।

१०. सूर्यादि सप्तवारों में प्रतिष्ठा का निर्णय – रविवार को की गई प्रतिष्ठा तेजस्विनी, सोमवार को कल्याणकारिणी, मंगलवार को अग्निदाहकारिणी, बुधवार को धनदायिनी, गुरुवार को बलदायिनी, शुक्रवार को आनन्दकारिणी तथा शनिवार को सामर्थ्यविनाशिनी होती है।

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