Nyaya Siddhant Muktavali (न्यायसिद्धान्तमुक्तावली महादेवभट्टकृत-दिनकरीसहिता अनुमानखण्डमारभ्य समाप्तिपर्यन्तो भागः)
₹372.00
Author | Rajaram Shukla |
Publisher | Sampurnananad Sanskrit Vishwavidyalay |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition |
ISBN | 978-81-933608-8-0 |
Pages | 536 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | SSV0054 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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न्यायसिद्धान्तमुक्तावली (Nyaya Siddhant Muktavali) स्वतन्त्र ग्रन्थों में न्यायसिद्धान्तमुक्तावली को विश्वस्तर पर अत्यन्त लोकप्रियता प्राप्त हुयी। आचार्य विश्वनाथ पञ्चानन ने इस ग्रन्थ में जहाँ एक ओर तत्त्वचिन्तामणि का अनुसरण करते हुए प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों का विशद निर्वचन किया है, वहीं दूसरी ओर न्याय की प्राचीन परम्परा का आश्रयण करते हुए प्रमेय विवेचन भी किया है। पदार्थ विवेचन के क्रम में इस ग्रन्थ में वैशेषिक दर्शनाभिमत द्रव्य आदि सप्त पदार्थों का विवेचन किया गया है, जबकि न्याय परम्परा का अनुसरण करते हुए वैशेषिकों के कतिपय सिद्धान्तों का निराकरण किया है। यह ग्रन्थ संस्कृत एवं भारतीय दर्शन के आधुनिक एवं परम्परागत दोनों पद्धतियों के अध्येताओं के लिये उपयोगी होने के कारण सर्वत्र समादृत है। इस ग्रन्थ पर लिखी गयी अनेक व्याख्याओं में दिनकरी (प्रकाश) नाम से प्रसिद्ध व्याख्या विद्वत्समाज में अत्यधिक मान्य है। विषय की गम्भीरता के कारण यह व्याख्या सुगम नहीं है। इसकी एक प्रसिद्ध व्याख्या रामरुद्री इसकी गम्भीरता में और वृद्धि ही करती है। इसी दृष्टि से न्यायशास्त्र के सामान्य अध्येताओं के उपयोगार्थ राष्ट्रभाषा में प्रस्तुत व्याख्यान की रचना की गयी है।
न्यायसिद्धान्तमुक्तावली का प्रारम्भ मङ्गल की आवश्यकता तथा ईश्वर की सिद्धि से होते हुए द्रव्यनिरूपण पर आता है। द्रव्यों में आत्मा को ज्ञान के आश्रय के रूप में प्रतिपादित किया गया है। अतएव प्रासंगिक होने के कारण ज्ञान के विभिन्न भेदों एवं उनके साधनों का भी निरूपण किया गया है।
प्रमात्मक ज्ञान के करण को प्रमाण कहा जाता है। अन्य प्रमाणों की अपेक्षया प्रत्यक्ष प्रमाण की विशेषता है कि यहाँ प्रमा एवं प्रमाण दोनों को प्रत्यक्ष के नाम से (व्युत्पत्ति भेद से) जाना जाता है। न्याय-दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है- नित्य एवं अनित्य। ईश्वर प्रत्यक्ष नित्य होता है तथा जीव प्रत्यक्ष अनित्य। इन्द्रिय का विषय के साथ सन्निकर्ष से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को सर्वमत में प्रत्यक्ष स्वीकार किया गया है। इसी आधार पर इन्द्रियार्थ- सन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षम् यह प्रत्यक्ष का लक्षण किया जाता है तथा प्रत्यक्ष योग्य विषयों के आधार पर इन्द्रिय सन्निकर्ष भी अनेक प्रकार के स्वीकार किये गये हैं। प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य सभी प्रमाओं के प्रति कोई न कोई ज्ञान करण होता है। यथा अनुमिति के प्रति व्याप्तिज्ञान, उपमिति के प्रति सादृश्यज्ञान तथा शाब्दबोध के प्रति पदज्ञान कारण होते हैं, किन्तु प्रत्यक्ष प्रति इन्द्रिय करण होता है न कि ज्ञान। इस प्रकार प्रत्यक्ष को ज्ञान-अकरणक ज्ञान के रूप में भी व्याख्यायित किया जाता है। इस व्याख्यान का एक अन्य लाभ यह है कि इसके द्वारा नित्य प्रत्यक्ष (ईश्वर प्रत्यक्ष) का भी संग्रह किया जा सकता है; क्योंकि नित्य होने के कारण उसके प्रति कोई करण नहीं होता है, अतः ज्ञान भी करण नहीं होता है।
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