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Yogiraj Vishuddhanand Prasang Tatha Tattva Katha (योगिराज विशुद्धानन्द प्रसंग तथा तत्त्व कथा)

149.00

Author Gopinath Kaviraj
Publisher Vishvidyalaya Prakashan
Language Hindi
Edition 2018
ISBN 978-93-5146-197-5
Pages 198
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code VVP0118
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Description

योगिराज विशुद्धानन्द प्रसंग तथा तत्त्व कथा (Yogiraj Vishuddhanand Prasang Tatha Tattva Katha) आजकल पाश्चात्य देशों में जीवन-चरित रचना का प्रबल उत्साह देखने में आता है। धनी, ज्ञानी, गुणी, कलाविद, कर्मवीर जिन्होंने अपने जीवन में कुछ न कुछ विशेषता दिखायी है उन सब के जीवन वृत्तान्त की विवेचना होती है और इस प्रकार जीवन चरित का लिखना जातीय उत्कर्ष के लिए आवश्यक माना जाता है। हमारे देश में भी वर्तमान युग में न्यूनाधिक परिमाण में यह प्रथा चल पड़ी है। और यह भी नहीं कह सकते कि प्राचीन काल में यह प्रथा बिलकुल थी ही नहीं। किन्तु महापुरुषों का जीवन साधारण मनुष्यों के सदृश नहीं होता। उनका जीवन आदर्श-रूप होते हुए भी जगत के लिए सर्वप्रकार से अनुकरणयोग्य नहीं होता। हाँ, उनके उपदेश अवश्य पालनीय होते हैं किन्तु यदि उनका स्वयं हम अन्धानुकरण करें तो उनकी सी अवस्था कभी प्राप्त नहीं कर सकते। जिन उपायों से वे महिमा प्राप्त करते हैं, उनको जानकर लोगों का उपकार हो सकता है, यह सत्य है, परन्तु उनके गुह्य विषयों का वर्णन कर प्रकाशित करना उचित नहीं।

सद्‌गुरु की शक्ति प्राप्त कर उनके आदेशानुसार कार्य करते रहने से दीर्घकाल के अध्यवसाय, निष्ठा तथा श्रद्धा के फलस्वरूप जीवन का उपादान परिवर्तित होकर अवश्य शुद्धि होती है। अस्वाभाविक अनुकरण द्वारा तो कोई फलसिद्धि नहीं हो सकती। ऐसे महापुरुषों के जीवन-चरित कथा-कहानी की तरह लिखकर प्रकाशित करने के विषय नहीं होते। जिन्होंने ऐसी चेष्टा की है, उन्होंने अपनी धृष्टतामात्र प्रगट की है। रेनान् (Renan) ने ईसा की और बंकिमचन्द्र ने श्रीकृष्ण की जीवनी लिखने की चेष्टा की थी। परन्तु कहने की आवश्यकता नहीं कि दोनों ही असफल रहे। जिसको यथार्थ में जीवनी कहा जाय ऐसी किसी भी महापुरुष की नहीं लिखी गयी। जो लिखते हैं, वे यदि स्वयं उच्च अवस्थापन्न पुरुष नहीं हैं तो आलोच्य जीवन को आप ही ठीक-ठीक नहीं समझ सकेंगे और उस जीवन में जो प्रतिक्षण विचित्र रहस्यों का उदय होता है उसको कदापि देख नहीं पायेंगे, तब फिर उसको दूसरों के लिए बोधगम्य बनाने की तो बात ही अलग रही। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि दिव्य चरित्र में लेखक की अपने भावानुरूप क्षुद्रता तथा मानवीयता आरोपित हो जाती है और अपनी भ्रान्तिपूर्ण विवेचना शक्ति के मापदण्ड से वह आलोच्य महाजीवन पर अप्रामाणिक विचार करने जाता है। प्रकारान्तर से वास्तविक सत्य की अवमानना कर बैठता है। मुहम्मद का जीवन चरित्र पढ़कर मुहम्मद का ठीक-ठीक परिचय नहीं मिलता। बुद्ध, शंकर, चैतन्य इन सबके संबंध में भी यही बात है। बुद्धचरित या ललित विस्तार, शंकरविजय या शंकर विलाम, चैतन्य चरितामृत या चैतन्य मंगल आदि कोई भी यथार्थ जीवन चरित नहीं है।

जीवन चरित लिखना बड़ा कठिन कार्य है। एक प्रकार से उसे असम्भव भी कहें तो अत्युक्ति न होगी। यह एक संदेह की बात है कि एक मनुष्य की जीवनी दूसरा आदमी ठीक-ठीकै समझ भी सके और उसको ठीक-ठीक वैसे ही लिख भी सके। अपना जीवन पूरा अपनी ही समझ में नहीं आता तो दूसरे लोग भला उसे कितना क्या समझ सकेंगे। जो जितना ही ज्ञानी है, उतना ही उसको अपना जीवन अपने आप को रहस्यमय ही मालूम होता है। जो विराट शक्ति जगत् के भीतर और बाहर अणु से लेकर महत् तक में खेल कर रही है, उसके खेल को हम अपने अहंकार और मोह के आवरण से देख नहीं पाते, वही शक्ति प्रत्येक के जीवन में खेल रही है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। चाहे वह हमारी समझ में न आवे परन्तु हम उसको अस्वीकार नहीं कर सकते। जैसे-जैसे अहंकार निवृत्ति होती जाती है, उस विराट शक्ति की क्रीड़ा का प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है और जीवन की क्षुद्र घटनाओं में भी उसकी महिमा का आभास दिखायी देने लगता है और महाशक्ति का खेल देखकर मनुष्य अपने को धन्य मानता है।

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