Prakrit Hindi Kosh (प्राकृत हिन्दी कोश)
₹1,020.00
Author | Dr. K.R. Chandra |
Publisher | Parshwanath Vidyapitha |
Language | Hindi |
Edition | 3rd edition, 2022 |
ISBN | 81-86715-49-5 |
Pages | 890 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 6 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | PV00098 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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प्राकृत हिन्दी कोश (Prakrit Hindi Kosh) भारतीय साहित्य और संस्कृति के सांगोपांग अध्ययन की दृष्टि से प्राकृत भाषा का अत्यन्त महत्त्वूपर्ण स्थान है। भाषा मानव के व्यवहार का वह पहलू है जिससे उच्चरित शब्दों का एक प्रतिमान ध्वनित होता है। बोलियाँ को छोड़कर सारी दुनियां की भाषाओं की संख्या लगभग दो हजार है। दुर्भाग्य से जनबोली का रूप जानने के लिये हमारे पास साधनों का अत्यन्त अभाव है। इस बोली के आधार पर ही वेदों की भाषा तैयार की गयी जिसने कालान्तर में साहित्यिक रूप लिया। किसी भाषा को सर्जनात्मक रूप देने में शताब्दियां गुजर जाती हैं। क्योंकि भाषा परिवर्तनशील है, उसमें देश, काल, के अनुसार परिवर्तन होते रहते हैं। भाषा का जो रूप आज हमारे सामने है उनमें आर्य और आर्येतर भाषाओं की ना जाने कितनी धारायें समाविष्ट हुई होंगी तब कहीं जाकर इसका यह वर्तमान रूप बना। एक समय ऐसा आया जब संस्कृत महर्षि पाणिनि के व्याकरण से सुसंस्कृत, परिमार्जित और परिष्कृत भाषा होने के कारण विशिष्टजनों की भाषा हो गयी। किन्तु बोलचाल की जन भाषा प्राकृत के सम्बन्ध में ऐसा होना सम्भव नहीं था। क्योंकि क्षेत्रीय भाषा होने के कारण वह विभिन्न जनपदों की भिन्न-भिन्न रूप में बोली जाती थीं। प्राकृत ‘प्रकृति’ शब्द से निष्पन्न है जिसका अर्थ व्याकरणादि के संस्कार से विहीन स्वाभाविक वचन का व्यापार, उससे उत्पन्न अथवा वही प्राकृत है। अनेक विद्वान् प्राकृत पहले है या संस्कृत इस पर मतैक्य नहीं रखते। किन्तु इतना तो सच है कि दोनों भाषाओं ने सहोदर बहनों के रूप में भारतीय साहित्य को समृद्ध किया है। इसमें कोई सन्देह नही है कि प्राकृत बोलियों का यह सार्वभौमिक रूप भारतीय संस्कृति को अग्रगामी बनाने में वरदान सिद्ध हुआ।
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में जब भगवान् महावीर ने मगध में जन्म लिया तो जनसामान्य द्वारा बोली जाने वाली वहां की बोली मागधी अथवा अर्द्धमागधी कहलाती थी। इसी बोली में उन्होंने अपना निग्रंथ प्रवचन दिया जो आगे चलकर आगम सूत्रों में संकलित किया गया। कालान्तर में प्राकृत के कई रूप बने यथा श्वोताम्बर जैन आगमों की भाषा अर्द्धमागधी तथा महाराष्ट्री प्राकृत, दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों की शोरसेनी प्राकृत, जैनों की धार्मिक और लौकिक कथाओं की प्राकृत, संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त विभिन्न रूपों वाली प्राकृत, बृहत्कथा की पैशाची प्राकृत, अशोक के अभिलेखों की प्राकृत तथा प्राचीन आगम साहित्य और उस पर लिखे विपुल व्याख्या-साहित्य में जैनधर्म से सम्बन्धित प्राचीनकाल से चली आनेवाली अनेक अनुश्रुतियों, परम्पराओं, मान्यताओं, ऐतिहासिक, अर्द्ध-ऐतिहासिक एवं पौराणिक धारणाओं तथा धार्मिक और लौकिक आख्यायिकाओं की प्राकृत जो भारतीय साहित्य की अक्षयनिधि है। प्राकृत वाङ्मय में तत्कालीन विभिन्न देशीय, ऐतिहासिक, राजनैतिक, आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक भारत का चित्रण उपलब्ध होता है। लोक-भाषा और लोक-जीवन के चित्रण के अतिरिक्त, धार्मिक, दार्शनिक एवं आचारात्मक विषयों पर प्रभूत एवं व्यवस्थित सामग्री प्राकृत साहित्य में उपलब्ध है। काव्य, कथा, नाटक-चरित, चरितकाव्य, छन्द, अलंकार, आयुर्वेद, ज्योतिष, विज्ञान, वास्तुकला, स्थापत्य, चित्रकला, प्रतिमाविज्ञान आदि नानारूप साहित्य विधायें प्राकृत साहित्य में उपलब्ध हैं।
सम्पूर्ण आगमिक जैन साहित्य प्राकृत में निबद्ध है जिसमें जैनधर्म-दर्शन के गूढ़ तत्त्व अनुस्यूत हैं। प्राकृत भाषा एक प्राचीन भाषा समूह है जो उस समय विभिन्न जनपदों में भिन्न-भिन्न रूप में बोली जाती थी। यही कारण है कि प्राकृत में देश्य शब्दों का बहुतायत प्रयोग हुआ है। प्राकृत भाषा के उचित ज्ञान हेतु उसमें व्यवहृत शब्दों तथा उनके अर्थों को बिना जाने कोई भी विद्वान् मौलिक शोध में प्रवृत्त नहीं हो सकता। प्राकृत-गुजराती कोश के अतिरिक्त प्राचीन दो कोश ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं-पं० धनपालकृत पाइअ-लच्छी-नाममाला और हेमचन्द्राचार्यकृत देशीनाममाला। इसके बाद राजेन्द्रसूरिजी का अभिधानराजेन्द्रकोश तथा पं० हरगोविन्द त्रिकमचन्द सेठ का आधुनिक शैली में लिखित पाइअ-सद्द-महण्णओ प्रकाश में आया।
हिन्दी अर्थ के साथ प्राकृत-हिन्दी कोश से बेहतर कोई कोश उपलब्ध हो, यह मेरी जानकारी में नहीं है। यही कारण है कि अबतक इस ग्रंथ के दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। पाठकों की विशेष मांग पर इसका तीसरा पुनर्मुद्रित संस्करण प्रकाशित किया जा रहा है।
आशा है यह ग्रंथ शोधार्थियों को मूल आगमों और तुलनात्मक अध्ययन हेतु महत्त्वपूर्ण अवसर प्रदान करेगा।
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