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Mantra Maharnava Devta Khand (मंत्र महार्णव देवता खण्ड)-171

Original price was: ₹1,000.00.Current price is: ₹800.00.

Author Dr. Surkant Jha
Publisher Rupesh Thakur Prashad Prakashan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 1st edition, 2011
ISBN -
Pages 1048
Cover Hard Cover
Size 14 x 6 x 21 (l x w x h)
Weight
Item Code RTP0079
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Description

मंत्र महार्णव देवता खण्ड (Mantra Maharnava Devta Khand) इस समय प्रस्तुत ग्रन्थ तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र को उपलब्ध कराने वाला एक मात्र ग्रन्थ है, जिससे साधारण जन सीधे जानकारी कर योग्य गुरु के संरक्षण में साधना कार्य को सम्पन्न करने हेतु समुद्यत हो सकते हैं, साथ ही साधना से सम्बन्धित हर प्रकार की जानकारी, जो उक्त ग्रन्थ के प्रारम्भ के चार तङ्गों में पूर्ण स्पष्टता व विस्तार से बताया गया है, का सीधा लाभ उन्हीं सामान्य, निरीह साधकों को प्राप्त हो सकता है। उन्हें दूसरों के ऊपर की निर्भरता की आवश्यकता ही नहीं।

ऐसे ही साधारण, सीधे, निरीह नव तन्त्र साधकों के निमित्त तंत्रशास्त्र विषयक कुछ चर्चा कर देना अनुचित नहीं है; क्योंकि निश्चय ही इससे उनके ज्ञान का विस्तार व चित्त में स्थिरता और श्रद्धा विश्वास का बीज अंकुरित हो सकेगा। वस्तुतः तंत्र, मंत्र, यंत्र, योग, पूजा-अनुष्ठान, यज्ञ, आदि में एक विशिष्ट ऊर्जा-विज्ञान काम करता है; यह ब्रह्माण्डीय ऊर्जा संरचना ही इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, क्रिया, उसकी ऊर्जा तरंगों और उनसे निर्मित होने वाली भौतिक ईकाइयों की ऊर्जा संरचना का मूल स्रोत है। आधुनिक युग में इस तंत्रशास्त्रीय ऊर्जा विज्ञान को जानने वाले प्रायः नहीं हैं। पुस्तकों में इस विज्ञान के गूढ़ विवरण रूपकों के रूप में लिखी गयी कथाओं में छिटपुट रूप से व्यक्त किये गये हैं। कुछ तकनीकियाँ पुस्तकों में छूट-सी गयी हैं; इससे वह आधुनिक विज्ञान के द्वारा परिभाषित नहीं हो पा रही है, इसलिये कभी-कभी इन्हें अंधविश्वास समझ लिया जाता है।

भारतीय आध्यात्मिक परम्परा में तंत्र-मंत्र अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, यह सर्वविदित ही है। वही संरचना ‘तंत्र’ या ‘सनातन धर्म’ के रूप में व्यक्त किया गया है। ‘तंत्र’ अर्थात् ब्रह्माण्ड या सृष्टि का ऊर्जा तन्त्र। सनातन धर्म का अर्थ है प्रकृति के शाश्वत धर्म या गुण। सनातन धर्म का अर्थ हिन्दुओं-आर्यों के कर्मकाण्ड से सम्बन्धित नहीं माना जाना चाहिये। जब हम इसका यह अर्थ लेते हैं, तो भारी भ्रम उत्पन्न हो जाता है। क्योंकि कर्मकाण्ड तो प्रत्येक युग में संशोधित-परिवर्तित होते रहे हैं।

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