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Agni Puran (अग्नि पुराण)

300.00

Author -
Publisher Gita Press, Gorakhapur
Language Hindi & Sanskrit
Edition 24th edition
ISBN -
Pages 848
Cover Hard Cover
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code GP0174
Other Code - 1362

 

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Description

अग्नि पुराण (Agni Puran) भारतीय जीवन-संस्कृतिके मूलाधार ‘वेद’ हैं। वेद भगवान्‌के स्वाभाविक उच्छ्वास हैं, अतः वे भगवत्स्वरूप ही हैं। श्रुत ब्रह्मवाणीका संरक्षण परम्परासे ऋषियोंद्वारा होता रहा, इसीलिये इसे ‘श्रुति’ कहते हैं। भगवदीय वाणी वेदोंके सत्यको समझनेके लिये षडङ्ग, अर्थात् शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त और ज्योतिषका अध्ययन आवश्यक था। परंतु जन-साधारणके लिये यह भी सहज सम्भव न होनेसे पुराणोंका कथोपकथन आरम्भ हुआ, जिससे वैदिक सत्य रोचक ऐतिहासिक आख्यायिकाओंद्वारा जन- जनतक पहुँच सके। इसीलिये कहा जाता है कि पुराणोंका कथोपकथन उतना ही प्राचीन है, जितना वैदिक ऋचाओंका संकलन और वंशानुवंश- संरक्षण। अध्ययनकी पाश्चात्त्य विश्लेषण-विवेचन-पद्धतिको सर्वोपरि मानकर पुराणोंको ईसा-जन्मके आस-पास अथवा उसके बादका ठहराना सर्वथा भ्रान्त तथा अनुचित है।

भारतके आदिकालमें समाजका प्रतिभासम्पन्न समुदाय जिस प्रकार वेदोंके अध्ययन-अध्यापन-निर्वचनमें निमग्न रहा, उसी प्रकार उसी कालमें समाजके साधारण समुदायको धर्ममें लगाये रखनेके लिये पुराणोंका कथन-श्रवण-प्रवचन होता रहा। शतपथब्राह्मण (१४। २।४। १०)- में आया है कि ‘चारों वेद, इतिहास, पुराण- ये सब महान् परमात्माके ही निःश्वास हैं।’ अथर्ववेद (११।७।२४) में आया है- ‘यज्ञसे यजुर्वेदके साथ ऋक्, साम, छन्द और पुराण उत्पन्न हुए।’ जो पुरातन आख्यान ऋषियोंकी स्मृतियोंमें  सुरक्षित थे और जो वंशानुवंश ऋषि-कण्ठोंसे कीर्तित थे, उन्हींका संकलन और विभागीकरण भगवान् वेदव्यासद्वारा हुआ। उन आख्यायिकाओंको व्यवस्थित करके प्रकाशमें लानेका श्रेय भगवान् वेदव्यासको है, इसी कारण वे पुराणोंके प्रणेता कहलाये; अन्यथा पुराण भी वेदोंकी भाँति ही अनादि, अपौरुषेय एवं प्रामाणिक हैं। भगवान् वेदव्यासद्वारा प्रणीत अठारह महापुराणोंमें अग्निपुराणका एक विशेष स्थान है। विष्णुस्वरूप भगवान् अग्निदेवद्वारा महर्षि वसिष्ठजीके प्रति उपदिष्ट यह अग्निपुराण ब्रह्मस्वरूप है, सर्वोत्कृष्ट है तथा वेदतुल्य है। देवताओंके लिये सुखद और विद्याओंका सार है। इस दिव्य पुराणके पठन-श्रवणसे भोग-मोक्षकी प्राप्ति होती है।

पुराणोंके पाँच लक्षण बताये गये हैं- १. सृष्टि-उत्पत्ति-वर्णन, २. सृष्टि-विलय-वर्णन, ३. वंश-परम्परा-वर्णन, ४. मन्वन्तर-वर्णन और ५. विशिष्ट-व्यक्ति-चरित्र-वर्णन। पुराणके पाँचों लक्षण तो अग्निपुराणमें घटित होते ही हैं, इनके अतिरिक्त वर्ण्य-विषय इतने विस्तृत हैं कि अग्निपुराणको ‘विश्वकोष’ कहा जाता है। मानवके लौकिक, पारलौकिक और पारमार्थिक हितके लगभग सभी विषयोंका वर्णन अग्निपुराणमें मिलता है। प्राचीनकालमें न तो मुद्रणकी प्रथा थी और न ग्रन्थ ही सहज सुलभ होते थे। ऐसी परिस्थितिमें विविध विषयोंके महत्त्वपूर्ण विवेचनका एक ही स्थानपर एक साथ मिल जाना, यह एक बहुत बड़ी बात थी। इसी कारण अग्निपुराण बहुत जनप्रिय और विद्वद्वर्ग-समादृत रहा।

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