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Astanga Sangrah Set Of 2 Vols. (अष्टाङ्गसंग्रहः 2 भागो में)

807.00

Author Kaviraj Atrideva Gupta
Publisher Chaukhambha Krishnadas Academy
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2022
ISBN 978-81-218-0097-8
Pages 844
Cover Paper Back
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0733
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Description

अष्टाङ्गसंग्रहः 2 भागो में (Astanga Sangrah Set Of 2 Vols.) आयुर्वेद की संहिताओं में बुद्धत्रयी के अन्दर चरक, सुश्रुत और अष्टांग संग्रह ये तीन संहितायें आती हैं। इसमें चरक संहिता का समय ७०० ईस्वी पूर्व से ३०० ईस्वी पश्चात् का समय है। इस में अत्रिपुत्र, अग्निवेश, चरक और दृढ़वल इन चार आचार्यों की देन होने से चार स्तर आते हैं। इसलिये इस संहिता का अपना विशेष महत्त्व है। सुश्रुत संहिता का यही महत्त्व है कि यह भारतवर्ष के इतिहास में अन्धकालीन युग के नाम से स्मरण किये जाने वाले समय में भारशिवों के समय बनी है।

तीसरी संहिता अष्टांग संग्रह है- यह गुप्तकाल की आयुर्वेद सम्बन्धी अन्तिम संहिता है। इस संहिता का महत्त्व कई कारणों से है। चरकोपस्कार के लेखक श्री योगीन्द्रनाथ सेन जी ने अपनी चरक संहिता की उपस्कार व्याख्या में इसको कदम कदम पर उद्धृत किया है। श्री यादव जी विक्रम जी आचार्य ने लिखा है कि अष्टांग संग्रह के पढ़े बिना केवल चरक-सुश्रुत पढ़ने से आयुर्वेद का ज्ञान ठीक प्रकार से नहीं होता। यह कहना आचार्य जी का बहुत सच्चा और महत्त्व पूर्ण है। विद्वानों की मान्यता है कि अष्टांग संग्रह के पढ़े बिना चरक और सुश्रुत [विशेषतः चरक] पढ़ाये ही नहीं जा सकते। भारतवर्ष का प्रामाणिक और सिलसिलेवार इतिहास गुप्त काल से ही प्रारम्भ होता है। गुप्तकाल में हमारा विदेशियों के साथ बहुत सम्पर्क हो गया था। यही कारण है कि इस संग्रह में भी शकों का उल्ले स्थान स्थान पर मिलता है; इसके सिवाय गुप्तकाल का प्रसिद्ध शब्द अलिञ्जर इसमें मिलता है।

गुप्तकाल में प्रसिद्ध उक्ति कि गुग्गुल के अतिसेवन से क्लीवता आती है; यह बचन जिस प्रकार से संग्रह में मिलता है उसी प्रकार इस काल के चतुर्भाण में भी मिलता है। चरक सुश्रुत किसी भी में गुग्गुल के कारण क्लीवता आने का उल्लेख नहीं ।इसमें ऐसे ऐसे आचार्यों का मत मिलता है, जिनका नाम किसी भी संहिता में देखने में नहीं आता-यथा, कौटिल्यका, चाणक्यका, नारदं का नाम योगों के सम्बन्ध में मिलता है कि इसके सिवाय भिन्न भिन्न आचार्यों के मत-एक ही विषय में-जितने स्पष्ट रूप में इसमें मिलते हैं उतने और किसी ग्रन्थ में नहीं। इसीसे टीकाकार इन्दु ने कहा है कि आचार्य ने भिन्न भिन्न आचयों के मत ही दिखाये हैं। चरक के विषय में इन्दु ने एक स्वतंत्र विचार रक्खा है, जो कि आज तक किसी भी विद्वान की कल्लना में नहीं था, अर्थात् चरक आधी संहिता का ही प्रतिसंस्कार करके ब्रह्मभूत हो गये थे। यह विचार आजतक कहीं भी नहीं आया।

इसके सिवाय साहित्य की दृष्टि से भी अष्टांग संग्रह का महत्त्व कम नहीं। इसके एक ही योग में चार- पांच भिन्न भिन्न छन्दों का प्रयोग मिलता है [उदाहरण के लिये-देखिये-गन्ध तेल [पृष्ट-३१२]। द्रुतविलम्बित, पृथ्वी स्वागता, पुष्पिताग्रा आदि छन्दों में ही इनके नाम के साथ छन्द रचना मिलती है । भाषा सरल सुसंस्कृत, हृदय को हटात् खींचनेवाली और मनोहर है। गुप्तकालीन रचना में यही विशेषता है। इसमें बहुत से विषय नये भी है। कुक्कुटी, कञ्चुकी, ताप्य आदि रसायन इसमें नये हैं। शिलाजतु की शिवागुटिका इसी का योग है; इसको तीसट ने चिकित्सा कलिका में लिखा है, चक्रपणिदत्त ने चक्रदत्त में लिखा। पैरों पर लेप करने से बाजीकरण होता है [वीर्य स्खलित नहीं होता] ऐसे योग इसी ग्रन्थ में पहले पहल देखने में आते हैं। अष्टांग संग्रह का लेखक बौद्ध था इसमें कोई सन्देह की जगह नहीं। उसने स्थान स्थान पर बौद्ध सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। इतना सब होने पर भी कुछ विद्वान इसको ब्राह्मण सिद्ध करना चाहते हैं- उनकी सम्भवतः यह मान्यता है कि जो भी अच्छी वस्तु है, वह सब ब्राह्मणों से ही बनी होगी।

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