Asvalayana Srautsutram (आश्वलायन श्रौतसूत्रम)
₹1,275.00
Author | Dr. Gopal Prasad Sharma |
Publisher | Bharatiya Vidya Prakashan |
Language | Sanskrit |
Edition | 2018 |
ISBN | 81-9353955-9 |
Pages | 393 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | TBVP0416 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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आश्वलायन श्रौतसूत्रम (Asvalayana Srautsutram) वेद समस्त ज्ञानराशि के भण्डार हैं। ये अनादि एवं अपौरुषेय हैं। ये धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के प्रतिपादक हैं। ये वेद वेदाङ्गों के द्वारा ही व्याख्यात होते हैं। अतः वेदाङ्गों का अतिशय महत्त्व है। ‘अङ्गयन्ते शायन्ते अमीभिरिति अङ्गानि’ अर्थात् जिनके द्वारा किसी तत्त्व के परिज्ञान में सहायता प्राप्त होती है, वे अङ्ग कहलाते हैं।
वेदाङ्ग छः हैं-
छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते। ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ।।
शिक्षा प्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्। तस्मात्साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते।।
वेदा हि यथार्थमभिप्रवृत्ताः’ एवं ‘आम्नायस्य क्रियार्यत्वात्’ इत्यादि वचनों के • अनुसार वेदों का मुख्य प्रयोजन है वैदिक कर्मकाण्ड अर्थात् श्रुति में प्रतिपादित यागादि। मीमांसा के प्रकरण ग्रन्थ अर्थसंग्रह में तो यागादि को ही धर्म कहा गया है। इस कर्मकाण्डरूपी प्रयोजन की सिद्धि के लिये प्रवृत्त जो अङ्ग है, उन्हें ‘कल्प’ कहते है। कल्प्यते समर्थ्यते यागप्रयोगो यस्मिन् स कल्पः। कल्प का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है, याग के प्रयोगों का समर्थक शास्त्र। कल्पो बेदविहितानां कर्मणामानुपूव्र्येण कल्पनाशास्त्रम्। वेद के षडङ्गों में कल्प वेदाङ्ग का स्थान क्रियात्मक एवं व्यावहारिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
वैसे तो ब्राह्मणग्रन्थों में भी यज्ञों का विशद वर्णन प्राप्त होता है, परन्तु इस वर्णन को व्यवस्थित करने का कार्य श्रौतसूत्रों का है; क्योंकि ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञों के वर्णन के अन्तर्गत यज्ञों की विधि के साथ अनेक कथानक अर्थवादों के साथ पाये जाते हैं, जिससे ब्राह्मण ग्रन्थों के आधार पर श्रौतयज्ञों के अनुष्ठान में सौकर्य नहीं रहता है, अतएव श्रौतसूत्रों की महती आवश्यकता समझ में आती है। कल्पसूत्र चार प्रकार के होते है।
१. श्रौतसूत्र। २. गृह्यसूत्र। ३. धर्मसूत्र। ४. शुल्बसूत्र।
श्रौतसूत्रों का मुख्य विषय श्रुति प्रतिपादित यज्ञों का क्रमबद्ध, क्रियात्मक वर्णन करना है। इन यज्ञों में दर्शपूर्णमास, पिण्डपितृयज्ञ, चातुर्मास्य, निरूढपशुबन्ध, सोमयाग, सत्र, वाजपेय, राजसूय, अश्वमेध, पुरुषमेध, एकाह, अहीन इत्यादि प्रमुख हैं। ये याग परिश्रमसाध्य एवं द्रव्यसाध्य होते हैं। साधारण मनुष्यों के लिये इनमें कोई आकर्षण नहीं होता है; क्योंकि इन यागों के सम्बन्ध में अधिकारीतत्त्व विशेष महत्त्वपूर्ण है। श्रौतयागों के लिए द्विजदम्पती को आहिताग्नि होना अनिवार्य है। ऋग्वेद के दो श्रौतसूत्र ही उपलब्ध हैं।
(१) आश्वलायन श्रौतसूत्र । (२) शाङ्खायन श्रौतसूत्र ।
आश्वलायन श्रौतसूत्र में १२ अध्याय हैं, जो पूर्वषट्क एवं उत्तरषट्क में विभक्त हैं। पूर्वषट्क, उत्तरषट्क की अपेक्षा बड़ा है। आश्वलायन श्रौतसूत्र में दर्शपूर्णमास से ही प्रारम्भ करके अन्य श्रौतयागों का वर्णन किया गया है। यह श्रौतसूत्र पिछले कई वर्षों से अनुपलब्ध था, जिसके कारण पाठक वर्ग को असुविधा होती थी, इसे ही ध्यान में रखकर मैंने इसके सम्पादन का कार्य किया है।
मेरे पूज्य पिता जी डॉ० मणिलाल शर्मोपाध्याय जो मेरे प्रेरणास्रोत हैं, उन्हें मैं हार्दिक प्रणामाञ्जलि निवेदित करता हूँ। मेरे आदरणीय गुरुवर प्रातः स्मरणीय श्री मनोहर देवीदास जोशी, जिन्होंने बड़े ही परिश्रम एवं वात्सल्यभाव से मुझे वेदाध्ययन कराया है, इस समय वृद्धावस्था में भी नागपुर में रहते हुए छात्रों को सतत वेदाध्ययन करा रहे हैं। उनको देने के लिये मेरे पास कुछ नहीं है। मैं उनके चरणों में हार्दिक प्रणामाञ्जलि निवेदित करके ही गुरुऋण से उऋण होना चाहता हूँ।
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