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Atharvaved Set of 2 Vols. (अथर्ववेद 2 भागो में)

1,020.00

Author Dr. Ashok Kumar Gaud
Publisher Rupesh Thakur Prasad Prakashan
Language Hindi & Sanskrit
Edition -
ISBN 978-93-85596-95-7
Pages 912
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code RTP0118
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Description

अथर्ववेद 2 भागो में (Atharvaved Set of 2 Vols.) वस्तुतः अथर्ववेद दो शब्दों के योग से बना है। अथर्वत् + वेद = अथर्ववेद। अथर्ववेद के ख्यातिप्राप्त ब्राह्मण गोपथब्राह्मण तथा यास्क के निरुक्त में अर्थवत् शब्द का अर्थ दो प्रकार से बतलाया गया है- गतिहीन या स्थिरता से युक्त योग। निरुक्त के अनुसार ‘थर्व’ धातु है। इसका तात्पर्य है गति या चेष्टा। इसमें ‘अ’ उपसर्ग लग जाने पर ‘अथर्व’ बनता है। तब इसका अर्थ हो जाता है- गतिशून्य स्थिर। (२) गोपथब्राह्मण के अनुसार ‘अथार्वाक्’ का सूक्ष्म स्वरूप अथर्वन् (अथर्वा) है।

अथ + अर्वाक् = अथर्वा। गोपथ में इसका अर्थ है- निकटस्थ आत्मा को अपने अन्दर देखना। अथर्ववेद वह वेद है जिसमें आत्मा को अपने भीतर साक्षात्कार करने की विद्या का उपदेश दिया गया है। अथर्ववेद संहिता बीस काण्डों में विभाजित की गई है। इसके भीतर ७२६ सूक्त तथा ५,९७७ मन्त्र हैं। बीसवें काण्ड में ज्यादातर मन्त्र ‘ऋग्वेद’ के हैं।

अथर्ववेद के इन मन्त्रों में साधना, उपासना और तन्त्र-विधान के द्वारा अध्यात्म, ब्रह्मविद्या और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। दोषों- दुर्भाग्य, दरिद्रता, शाप, दुष्कर्म, ताप, अमंगल, संकट, संघर्ष, विपत्तियाँ, भूत-प्रेत बाधा इत्यादि से जीवन की रक्षा होती है। इस प्रकार अथर्ववेद योग-साधना, चित्तवृत्ति निरोध, आत्मा एवं ब्रह्म की एकता आदि विषयों की व्याख्या करने वाला वेद है। अथर्ववेद का महत्त्व-अथर्ववेद कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। उनमें से कुछ बातें प्रस्तुत की जा रही हैं-

(१) अथर्ववेद वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति के ज्ञान हेतु अन्य वेदों की तुलना में ज्यादा महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान जितनी अधिक मात्रा में अथर्ववेद से प्राप्त होता है, उतनी मात्रा में किसी दूसरे वेदों से नहीं।

(२) अथर्ववेद में लोगों की सामाजिक स्थिति तथा राजनैतिक स्थिति की बहुत ही स्पष्ट व्याख्या प्राप्त होती है।

(३) अथर्ववेद वैदिक कालीन सर्वविध ज्ञान हेतु विश्वकोष है।

(४) तत्कालीन रीति-रिवाज, मान्यताएँ, प्रथाएँ, अन्धविश्वास, रूढ़ियाँ, कृत्या-प्रयोग, मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन आदि आभिचारिक कर्म, ताबीज, जादू-टोना, कष्ट निवारण, पापमोचन, शकुन-विचार एवं बहुत प्रकार की औषधियों का जैसा विवरण अथर्ववेद में प्राप्त होता है, वैसा अन्यत्र कहीं देखने को नहीं आता।

(५) आपस में विरोधी विचार भी अथर्ववेद में विपुल मात्रा में दृष्टिगत होते हैं। इसे कहीं ब्राह्मणों का वेद कहा गया है, तो कहीं पर क्षत्रियों का (क्षात्र) वेद कहा गया है।

(६) वेदत्रयी से यह पृथक् है। इसलिए भी यह सार्वजनिक वेद है। स्त्री, शूद्र इत्यादि सभी का इसके ऊपर अधिकार है।

(७) इस वेद में तत्कालीन समाज की पूरी झलक दिखलाई पड़ती है।

(८) अथर्व परिशिष्ट एवं स्कन्दपुराण अथर्ववेद के गुणों का गान करते हुए कहते हैं कि अथर्ववेद के मन्त्रों में महान् शक्ति विद्यमान् है। इसके मन्त्रों का जाप करने से सभी अभीष्ट पूर्ण होते हैं।

(९) अथर्ववेद कर्मकाण्ड का सम्पादक-वेद है। इससे शान्ति तथा पौष्टिक दो प्रकार के कार्यों का सम्पादन प्रस्तुत किया जाता है। दूसरे वेदों में इस तरह के कार्यों का सम्पादन प्रस्तुत नहीं किया जाता है। इसलिये यह सबसे विलक्षण है।

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