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Lahari Panchakam (लहरीपञ्चकंम)

45.00

Author Acharya Madhusudan Shastri
Publisher Chaukhambha Krishnadas Academy
Language Hindi & Sanskrit
Edition 2005
ISBN -
Pages 72
Cover Paper Back
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0610
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Description

लहरीपञ्चकंम (Lahari Panchakam) लहरीपञ्चकंम पण्डित राज जगन्नाथ को तैलङ्ग पण्डित में अपनी विलास अयी भावनाओं में विभोर होकर अपनी मस्ती की तरङ्गों में विद्वानों को आप्लुत करने के लिए लहरीपश्वक बनाया। यह पचक १९० पचों में निबद्ध है। जो इस क्रम से हैं। १- गङ्गालही, इसमें ५३ पत्च है। २- यमुनासहरो, ( जिसको अमृतलहरी नाम से लिखा है) इसमें ११ पद्य है। ३-करुणा- कहरी, इसमें ५५ पद्य हैं। ४ – लक्ष्मी लहरी इसमें ४१ पद्य हैं। ५- सुवालही इसमें ३० पद्य है। इनमें इन सबकी स्तुतियाँ हैं। कहा जाता है कि शृङ्गारमयी भावनाओं से बओत-प्रोत तैलङ्ग महानुभाब ने अपना जोवन बानन्द की अनुभूति में बताया। इनकी पत्नी कामेश्वरी ने यावज्जीवन इनको सुस्त का अनुभव करवाया। उसके मरने के बाद औरङ्गजेब की पुत्री लवली के साथ उनकी जीवन यात्रा होती रही। अतएव ये श्लोक उसके विषय में प्रसिद्ध है।

यवनी नवनीतकोमलाङ्गी शपनीये यदि नीयते कदाचित् । अवनीतलमेव साधु मन्ये, न वनी माघबनो विनोदहेतुः ।।

नवनीत नूतन गुहीत मक्खन के सदृश कोमल बङ्ग वाली यबनी पवन जातीया जो लबङ्गी अगर शयन में लेली जाय तो अबनोतल को ही उत्तम मानूँगा। उस समय मघवा को इन्द्र की बनी नन्दन बन मो विनोद का साथने नहीं हो सकता है।

इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तहस्ता लवङ्गी कुरङ्गो हगङ्गीकरोतु ।

यवनी रमणो विपदः शमनी कमनीयतमा नवनीतसमा ।

उह ऊहीबचो ऽमृतपूर्ण मुखी शरविन्दुरिवाखिलसोक्पकरी ।

मस्तक पर हस्त को रखनेवाली एवं सुन्दर स्तनोंवाली यह लवङ्गो रूपा कुरङ्गो मेरी तरफ ताके। जो विपदाओं का शमन करनेवाली है अब च नवनीत के सदृश बतीव कमनीय है और उह कही वचन रूपी अमृत से जिसका मुख पूर्ण है, वह यवनी रमणी शरद ऋतु के चन्द्र की तरह अखिछ सौख्य को करे। इसी के साथ रहने के कारण अप्पय दीक्षित ने जो पण्डितराज के पाण्डित्य के बैमव से एवं लोकिक सम्पत्ति से तथा ऐश्वर्य से पराहत रहे, इनको लवङ्गो के साहचर्य के कारण जातिच्युत कर दिया। तब इन्होंने करुणा को प्राक्ष करने के लिए करुणालही बनाई। करुणा करनेवाली देवियाँ गङ्गाजो यमुना जी लक्ष्मीजी एवं सरस्वती हैं, बतः उनके नाम से लहरियाँ बनाई है।

पदार्थ है। प्रश्न है। उत्तर को अन विचार करते हैं कि कही कौन श्रोतव्य एवं द्रष्टव्य सही है वह पदार्थ है। इस तरह लहरी दो प्रकार की है एक ध्वन्यात्मिका है दूसरी रूपात्मिका है। इनमें ध्वन्यात्मिका लहरी वह है जो कणों में प्रवेश करती है। रूपात्मिका लहरो वह है जो दृष्टिपब में बाती है। इस तरह शब्द हो या अर्थ हो, सम्पूर्ण जगत् कम्पन-स्वरूप है। कम्पनों में क्रमभेद होने पर परिणामभेद होता है। जैसा कि लिखा है-क्रमान्यत्वं परिणामान्यत्वे हेतुः । पा० योगदर्शन के विभूतिपादक १५ वाँ सूत्र है।

अतः रूपलहरियों का ध्वनिस्वरूप में इसके विपरीत ध्वनिलहरियाँ का द्रव्यस्वरूप में परिवर्तन सुख से हो सकता है। अतएव ऋषि लोग शब्दात्मक मन्त्रों के द्रष्टा थे, दर्शक थे। श्रुति भी इसका समर्थन करती है “”आत्मा व बरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तब्यो निदिध्यासितव्यः” इति मात्मा द्रष्टव्य हे चक्षुओं से देखा बाता है और कानों से सुना जाता है। बतः जो द्रष्टव्य है, वह बस्तु श्रोतव्य भी है और जो वस्तु स्रोतब्य है वह द्रष्टव्य भी है, दोनों एक ही हैं। प्रकृत में लहरी भी उमय-स्वरूप है, अतएव पण्डितराज ने इनका वर्णन में उपयोग किया। अस्तु श्रीः।

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