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Mimansa Darshan Ki Praman Mimansa (मीमांसा दर्शन की प्रमाणमीमांसा)

625.00

Author Dr. Hareti Lala Mina
Publisher Vidyanidhi Prakashan, Delhi
Language Hindi
Edition 2018
ISBN 978-9385539596
Pages 232
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code VN0039
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Description

मीमांसा दर्शन की प्रमाणमीमांसा (Mimansa Darshan Ki Praman Mimansa) जिज्ञासा के साथ ही दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ। उस जिज्ञासा की शान्ति हेतु ही प्रत्येक दर्शन स्व-लक्ष्य की ओर प्रवृत्त होता है तथा उस चरम लक्ष्य की प्राप्ति हेतु ज्ञान-प्राप्ति के लिए माने गए प्रामाणिक साधनों का आश्रय लिया जाता है। यद्यपि धर्म ही वस्तुतः मीमांसा दर्शन का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है। किन्तु मीमांसा के आरम्भ में इस धर्म की आधार भूमि प्रमाण (तर्क) को उपस्थापित किया गया है। यथार्थ अगृहीतग्राहि ज्ञानरूप प्रमाण का विशद निरूपण कुमारिल के श्लोकवार्त्तिक तथा अनुभूतिस्वरूप प्रमाण की मीमांसा प्रभाकर की बृहती में देखी जा सकती है। पार्थसारथि मिश्र ने कारण दोष से रहित बाधक तत्त्वों से रहित, अगृहीतग्राहिज्ञान को प्रमाण कहा है।

प्रमाणलक्षणविषयक मतभेद होते हुए भी प्रमाण की परिभाषा में दार्शनिकों ने ‘यथार्थ’ के स्वरूप पर विशेष बल दिया है। तर्क की कसौटी इस प्रमाण पर इतना विचार हुआ है कि एक से दस तक प्रमाणों की व्याख्या की गई है। मीमांसा में भाट्ट सम्प्रदाय व वेदान्त अपने प्रतिपाद्य की दृष्टि से छः प्रमाण स्वीकार करते हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि। समस्या यह है कि मीमांसा दर्शन के दोनों सम्प्रदायों में प्रमाण संख्या को लेकर साम्यता नहीं है। कुमारिल भट्ट छः व प्रभाकर मिश्र पाँच प्रमाण मानते हैं।

भाट्ट सम्प्रदाय के अनुयायी पार्थसारथि मिश्र ने प्रमाण-प्रमेय, शब्द और अर्थ का स्वरूप, शब्दार्थसम्बन्ध, शब्द की नित्यता, वेद अपौरूषेय, शाब्दबोध आदि दार्शनिक तथ्यों की सम्यक् रूप से विवेचना की है। पार्थसारथि मिश्र ने शबरस्वामी, कुमारिल भट्ट आदि मतों का समर्थन किया है। जबकि प्रभाकर मिश्र व शालिकनाथ मिश्र के मतों का खण्डन करके स्वमत की स्थापना की है।

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